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________________ ८, व ३३ कि०२ अनेकान्त स्वाभाविक परियन भाता है, मोढ़ा हुमा प्राचरण नही। सोचना नहीं पड़ता कि मैं कुछ करूं परन्तु जहां मूछा गयी अपने चेतन स्वभाव में जागरण किसी की अपेक्षा वहाँ अपनापना भी गया। नहीं रखता। जैसे एक दिया जल रहा है मोर उससे अगर कोई स्वय मे जाग जाता है तो उस द्वार पर रोशनी चारों तरफ फैल रही है। उसके पास से कोई भी पहुच जाता है जहाँ से ज्ञान की शुरूमात होती है। स्वयं गुजरता हो वह दिया अपनी रोशनी कम या ज्यादा नही में जाग जाना पहला बिन्दु है। वहीं से यात्रा भीतर की करता। उसे इस बात को फिक्र नही कि उसके पास से मोती भोर हो सकती है। व्यक्ति या तो राग में होता है या द्वेष कौन गुजर रहा है : सम्राट या गरीब भिखारी । कोई भी मे होता है और स्वय के बाहर होता है। रागद्वेष होने का उसके पास से होकर जाए उसकी रोशनी निरन्तर बिखरती मर्थ है स्वयं के बाहर होना। चाहे मित्र पर हो चाहे शत्रु रहती है। सच तो यह है कि दिए का जलाना दूसरे पर पर, लेकिन चेतना कहीं भौर होगी राग में भी द्वेष में भी। निर्भर नहीं करता । दिए का जलना उसकी अन्तर्वस्तु है। जो प्रादमी धन इकट्ठा करने मे पागल है उसका ध्यान वह स्वय में जागृत है। भो धन पर होगा और जो मादमी धन को अनिष्ट मान रहा है उसका ध्यान भी धन पर ही होगा। धन पर ही धर्म की साधना भी जागरण सहा मातो है। धम दृष्टि बिन्दु होगा उन दोनो का और अपने प्रति सोए साधा नही जाता, वह तो जागरण से क्रियानो मे रूपान्तर होगे। परन्तु जो स्वय में जागत हो जाता है उसकी सब होता है। बिन्दुमो में दृष्टि धूम कर अपने पाप पर खड़ी हो जाती मूळ टूटन का मतलब यह नही कि चीजे हट जायगा है। वह चुपचाप देखने लगता है। यह रहा त्याग, यह रहा मूर्छा टूटने का मतलब है कि चीज तो रहेंगी लेकिन उनसे क्रोध । न मैं भोग करता हू, न मैं त्याग करता है। मैं लगाव छूट जाएगा। चीजें हो या न हों, सवाल यह नही पलग खड़ा देखता हूँ ऐसी स्थिति में स्वयं का द्वार खुल है जो परिग्रह या अपरिग्रह का सवाल है वह बाहरी चाजो जाता है जहाँ से ज्ञान की प्रथम भूमिका में जाया जा सके। का है बह भीतर नहीं है। जहाँ विवेक होगा वहाँ पाचरण तब वासना की डार टूट जाती है। कर्मकृत खेल फिर भी स्वय उपस्थित हो जाएगा, करना नही पड़ेगा। अगर चलता रहता है। परन्तु फिर उस खेल से क्या बिगड़ता करना पड़ रहा है तो वह इस बात की खबर दे रहा है कि ३ बम बात की खबर दे रहा है कि है ? साक्षी उसमे अलग खड़ा हो जाता है। वहाँ अन्तर-विवेक नही है । मन्तर विवेक की अनुपस्थिति जागृति दा तरह से हो सकती है, बहिर्मुखी भौर मे पाचरण अन्धा है, चाहे वह कितना ही नैतिक क्यो न अन्तर्मुखी। बहिर्मुखी जागति होगी तो अन्तर पन्धकारहो। वह समाज के लिए ठीक हो सकता है परन्तु पात्म- पूर्ण हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति मूछित हो जाएगा मगर कल्याण के लिए नहीं। आगति पन्तर्मुखी है तो बाहर की तरफ मूर्छा हो जाएगी। अन्तर्मुखता का प्रगर विकास हा तो जो तीसरी स्थिति फिक इसकी करनी चाहिए कि जीव जा भी है उसम होगी वह भी जागति की उपलब्धि होगी जहां अन्धकार जागे, इसको नही कि उसे क्या करना है और क्या होना मिट जाता है और सिर्फ प्रकाश रह जाता है। वह पूर्ण है। होने की चिन्ता छोड़ दें। वह जो जागना है वही जागृत स्थिति है लेकिन बहिर्मुखता से कभी कोई एक वीतरागता मे ले जाएगा पौर वीतरागता एक बिल्कुल तीसरी स्थिति में नही पहुंच सकता। तीसरी स्थिति में भिन्न बात है। पहुचने के लिए अन्तर्मुखता जरूरी है। बाहर से लौट व्यक्ति सोकर स्वप्न में सब कुछ ग्रहण कर लेता है। माना है और फिर अपने से भी ऊपर चले जाना है। मूर्छा लेकिन सुबह हँसता है क्योकि वह जाग गया है। स्वप्न में का अर्थ है कि बाहर है। बाहर का मतलब है कि स्वयं जिसको ग्रहण किया था वह जाग्रत होने पर नही रहा। अपना ध्यान बाहर है। भोर जहां अपना ध्यान है वहां
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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