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२८, बर्ष ३३, किरण ४
अनेकान्त
की विशुद्धि को प्राप्त होते हुए शुक्लध्यान के सम्मुख हुए। ही, साथ ही सिद्धान्त की दृष्टि से भी बाषित हो। एक वर्ष का उपवास समाप्त होने पर भरतेश्वर ने भाकर जैले कि शल्य तीन होती हैं-माया, मिथ्या पोर निदान। जिनकी पूजा की है ऐसे महामनि बाहबली केवलज्ञान ज्योति
माया का पर्व है बंचना-उगना, शल्य-मिथ्यात्व का को प्राप्त हो गये। वह भरतेश्वर मझये सक्लेश की प्राप्त हो
कहते है "मैं भारत की भूमि पर खड़ा हूँ" यह विपरीत गया है यह विचार बाहुबली के हृदय मे रहता था, इसलिये
ही मिथ्या शल्य कही जा सकती है सो भी बाहुबली के केवलज्ञान ने भरत की पूजा की अपेक्षा की थी। प्रसन्नबुद्धि
मानना सम्भव नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टि साधु के सम्राट्, भरत ने केवल ज्ञान उदय के पहले और पीछे
सर्वाधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और अनेकों ऋद्धिया प्रगट विधिपूर्वक उनकी पूजा की थी। भरतेश्वर ने केवलज्ञान
नहीं हो सकती थीं। निदान शल्य का अर्थ है प्रागामा के पहले जो पूजा को पी वह अपना अपराध नष्ट करने के
काल में भोगों की वांछा रखते हुए उसी का चिन्तन लिये की थी और केवलज्ञान के बाद मे जो पूजा की थी वह
करना सो भी उन्हें नही मानी जा सकती है। केवलज्ञान की उत्पत्ति का अनुभव करने के लिए की थी।"
__ दूसरी बात यह है कि तत्वार्थ सूत्र मे श्री उमास्वामो इस प्रकार महापुराण के इन उबरणों से स्पष्ट हो ।
हा प्राचार्य ने कहा है कि "निःशल्पो व्रती" जो माया, जाता है कि भगवान् बाहुबली को कोई शल्य नहीं थी।मात्र
मिथ्यात्व और निदान तीनों शल्यों से रहित होता है वही इसमा बिकल्प अवश्य था कि "भरत को मेरे द्वारा सक्लेश
व्रती कहलाता है। पुनः यदि बाहुबली जैसे महामनि के हो गया है।" सो भरत को पूजा करते ही वह दूर हो गया।
भी शल्य मान ली जाये तो वे महाव्रती क्या प्रणवती भी ___"माप जाइये, कहां जायेंगे।" भरत की भूमि पर ही
नहीं माने जा सकेंगे। पुनः वे भावलिंगोमुनि मही हो तो रहेंगे। ऐसे मंत्रियों के द्वारा व्यंग्यपूर्ण शब्द के कह सकते और न उनके द्धियों का प्रादुर्भाव माना जा जाने पर बाहुबलो कुछ मुन्ध से हुए भोर मान-कषाय को सकता है। यदि कोई कहे कि पुनः एक वर्ष तक ध्यान पारण करते हुए चले गये तथा दीक्षा ले ली उस समय
करते रहे मोर केवल ज्ञान क्यों नही हुपा, सो भी प्रश्न से लेकर उनके मन में यही शल्य लगी हुई थी कि "मैं उचित नहीं प्रतीत होता। भरत की ममि में खड़ा हमाहूं।" प्रतः उन्हे केवलज्ञान एक वर्ष का ध्यान तो अन्य महामुनियो के भी माना नही हो रहा था। तब भरत ने जाकर भगवान् ऋषभदेव गया है। जैसे कि उत्तरपुराण में भगवान् शांतिनाथ के से प्रश्न किया कि बाहुबली को एक वर्ष के लगभग होने पूर्वभवों में एक उदाहरण प्राता है-- पर भी अभी तक केवलज्ञान क्यो नही हुपा है ? भगवान् वायुष ने विरक्त हो सहस्रायुध को राज्य दिया ने कहा-भरत | उसके मन में शल्य है। पतः तुम जावो पनः क्षेमकर तीर्थंकर के पास जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और पौर समझामो कि भला यह पृथ्वी किसकी है। हमारे बाद में उन्होंने "सिदिगिरि" पर्वत पर जाकर एक वर्ष जैसे तो पनन्तों पक्रवती हो चुके हैं। फिर भला यह पृथ्वी के लिए प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके चरणों का मेरी कैसे है !"इत्यादि समाधान करते हुए बाहुबली भगवान् भाश्रय पाकर बहुत से वमोठे तैयार हो गये। उनके चारो की शल्य दूर हुई और उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया।" तरफनगी हई लतायें भी मुनिराज के पास जा पहुंची।
यह किवदन्ती महापुराण के प्राधार से तो गलत है इधर बजायुष के पुत्र सहस्रायुध ने भी विरक्त हो अपना
केवलार्कोदयात् प्राक्य पश्वाच्च विधिवद व्यावात् । सपर्या मरतापोशो योगिनोडस्य प्रसन्नधीः ।।
१. इत्युपास्तुसध्यान बलोद्भूतं तपोबलः । स लेश्या शुद्धिमास्कंदन, शुक्लध्यामोन्मुखोरभवत् ॥ वत्सरानशनस्यान्ते भरतेशेन पूजितः । स भेजे परमज्योतिः केवलाल्यं यदक्षरम् ॥ सक्लिष्टो भरताधीशः सोमस्मतः इति बस्किल । हृदयस्य हा तेनासीत्, तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् ॥
स्वायः प्रमार्जनाज्या प्राक्तनी भरतेशिनः । पाश्चात्यारत्ययताडपीज्या केवलोत्पत्तिमन्वभूत् ।।
महापुराण ३६.१८४.८८