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________________ भगवान महावीर को अग्यात्म-वेशना मात्मा का स्वस्थ जिसके साथ नौकर्म, द्रव्य कर्म, पौर भावकम प पर भनेक पदार्थों से भरे हुए विश्व मे पात्मा का पृथक् पदार्थ का संसर्ग हो रहा है ऐसा संसारी जीव अस्तित्व स्वीकृत करना प्रास्तिक दर्शनो की प्रथम भयिका अशुद्ध जीव कहलाता है और जिसके साथ उपर्युक्त परहै । प्रात्मा का अस्तित्व स्वीकृत करने पर ही अच्छे पदार्थ का ससर्ग नही है ऐसा सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध जीव बरे कार्यो का फल तथा परलोक का अस्तित्व सिद्ध हो कहलाता है। प्रशुद्ध जीव उस सुवर्ण के समान है जिसमे सकता है। अमृतचन्द्र प्राचार्य ने प्रात्मा का अस्तित्व मन्य धातुमो के समिश्रण से प्रशुद्धता पा गई है पोर प्रदर्शित करते हुए कहा है शुद्ध जोव उस सुवर्ण के समान है जिसमे से अन्य धातुओं प्रस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवजित: स्पर्शगन्धरसवर्णः। का समिश्रण अलग हो गया है। जिस प्रकार चतुर गुणपर्य यसमवेतः समाहितः समृदयव्ययध्रौव्यः ।। स्वर्णकार की दृष्टि में यह बात अनायास मा जाती है पुरुष-प्रात्मा है और वह चैतन्यस्वरूप है, स्पर्श, कि इस स्वर्ण मे अन्य द्रव्य का समिश्रण कितना है, उसी रस, गन्ध तथा वर्ण नामक पौद्गलिक गुणो से रहित है, प्रकार ज्ञानी जीव को दृष्टि में यह बात अनायास मा गुण और पर्यायो से तन्मय है तथा उत्पाद, व्यय पोर जाती है कि प्रात्मा में अन्य द्रव्य का संमिश्रण कितना ध्रौव्य से सहित है। है और स्वद्रव्य का अस्तित्व कितना है। जिस पुरुष ने किसी भी पदार्थ का वर्णन करते समय प्राचार्यों ने स्वद्रव्य-पात्मद्रव्य में मिले हए पर द्रव्य का अस्तित्व दो दृष्टियाँ अंगीकृत की है--एक दृष्टि स्वरूपोपादान प्रथक समझ लिया वह एक दिन स्वद्रव्य की सत्ता की है और दूसरी दृष्टि पररूपापोहन की। स्वरूपोपादान से परद्रव्य की सत्ता को नियम से निरस्त कर देगा, यह की दृष्टि मे पदार्थ का अपना स्वरूप बताया जाता है निश्चित है। मौर पररूपापोहन की दृष्टि मे पर पदार्थ से उसका स्वभाव-विभाव पृथक्करण किया जाता है । पुरुष-मात्म चैतन्य रूप है, शरीर को नौकम कहते हैं। यह नौ कर्म स्पष्ट हो यह स्वरूपोपादान दृष्टि का कथन है और स्पर्शादि से पुद्गल द्रव्य को परिणति है, इसीलिए तो स्पर्श, रस, रहित है, यह पररूपापोहन दृष्टि का कथन है । देख, गन्ध प्रौर वर्ण से सहित है। इससे प्रात्मा को पृथक तेरा मात्मा का चैतन्य स्वरूप है, ज्ञाता दृष्टा है और अनुभव करना यह अध्यात्म की पहली सीढी है। उसके साथ जो शरीर लग रहा है वह पौद्गलिक पर्याय ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म, पोद्गलिक होने पर भी इतने है। यह जो स्पर्श रस, गन्ध तथा वर्ण अनुभव में प्राते सूक्ष्म है कि वे इन्द्रियो के द्वारा जाने नहीं जा सकते । है वे उसी शरीर के धर्म है, उन्हे तू प्रात्मा नही समझ साथ ही प्रात्मा के साथ इतने धुले-मिले हुए है। कि एक बैठना । यह तेरा मात्मा सामान्य विशेष रूप अनेक गुण भव से दूसरे भव मे भी उसके साथ चले जाते है तथा स्वभाव भोर विभावरूप पर्यायो से सहित है। साथ उन द्रव्यकर्मों को प्रात्मा से पृथक् अनुभव करना यह ही परिणमनशील होने से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से अध्यात्म की दूसरी सीढी है। युक्त है। द्रव्य कर्म के उदय से होने वाला विकार प्रात्मा के अध्यात्म शम का अर्थ साथ इस प्रकार तन्मयीभाव को प्राप्त होता है कि अच्छे उपर्यक्त प्रकार से परपदार्थों से भिन्न प्रात्मा का प्रच्छे ज्ञानी जीव भी भ्रान्ति मे पर जाते है। अग्नि का अस्तित्व स्वीकृत करना अध्यात्म की प्रथम भूमिका है। स्पर्श उष्ण है तथा रूप भास्वर है, पर जब वह अग्नि 'मात्मनि इनि अध्यात्म' इस प्रकार प्रव्ययीभाव समास पानी में प्रवेश करती है तब अपने भास्वररूप को छोड. के द्वारा प्रध्यात्म शब्द निष्पन्न होता है और उसका अर्थ कर पानी के साथ इस प्रकार मिलती है कि सब लोग होता है प्रात्मा मे अथवा प्रात्मा के विषय में । प्रशुद्ध और उस उष्णता को पग्नि न मानकर पानी की मानने शुद्ध के मैद से जीव का परिणमन दो प्रकार का होता हैं। लगते है । 'पानी उष्ण है' यह व्यवहार उसी मान्यतामूलक
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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