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________________ भगवान महावीर को अध्यात्म-देशना Cडा. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य, सागर लोक व्यवस्था मूतिक हो अथवा प्रमूतिक, जीव के ज्ञान से बाहर नहीं जीव, पुद्गल, धर्म, अधम, प्राकाश और काल इन रहता। पुद्गल द्रव्य के माध्यम होने की बात परोक्ष छह द्रव्यों के समूह को लोक कहते हैं। इनमें सुख-दुःख ज्ञान-इन्द्रियाधीन ज्ञान में ही रहती है, प्रत्यक्ष ज्ञान में का अनुभव करने वाला, प्रतीत घटनापो का स्मरण करने नही। वाला तथा प्रागामी कार्यो का मकल्प करने वाला द्रव्य, प्रसख्यात प्रदेशी लोकाकाश के भीतर सब द्रव्यों का जीव द्रव्य कहलाता है। जीवद्रव्य मे ज्ञान, दर्शन, सुख, निवास है, इसलिए सब द्रव्यों का परस्पर सयोग तो हो वीर्य प्रादि अनेक गुण विद्यमान है। उन गुणों के द्वारा रहा है पर सबका मस्तित्व अपना-अपना स्वतन्त्र रहता इमका बोध म्बय होता रहता है। पुद्गल द्रव्य स्पष्ट ही है। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य मे प्रत्यन्ताभाव रहता है, दिखाई देता है। यद्यपि सूक्ष्म पुद्गल दृष्टिगोचर नही इसलिए सयोग होने पर भी एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप होता तथापि उनके सयोग से निर्मित स्कन्ध पर्याय उनके परिणमन त्रिकाल मे भी नहीं करता है। अनुभव में प्राता है और उसके माध्यम से सूक्ष्म पुद्गल यह लोक की व्यवस्था प्रनादि अनन्त है । न इसे का भी अनुमान कर लिया जाता है। जीव और पुद्गल के किसी ने उत्पन्न किया है और न कोई इसे नष्ट कर चलने में जो सहायक होता है उसे धर्म द्रव्य कहा गया है व्य कहा गया है सकता है । धर्म, अधर्म, माकाश, काल और घटपटादि और जो उक्त दोनों द्रव्यों के ठहरने में सहायक होता है रूप पुद्गल द्रव्य, जीव द्रव्य से पृथक है, इसमे किसी को वह प्रधम द्रव्य कहलाता है। पुद्गल द्रव्य मोर उसके सन्देह नही, परन्तु कर्म नौकर्म रूप जो पुद्गल वन्य जीव साथ मम्बद्ध जीव द्रव्य की गति तथा स्थिति को देखकर के साथ प्रनादिकाल से लग रहा है, उसमें अज्ञानी जीव उनके कारणभत धर्म प्रधर्म द्रव्य का पस्तित्व अनुभव मे स्तित्व मनुभव म भ्रम में पड़ जाता है। वह इस पुद्गल द्रव्य मोर जीव पाता है। समस्त द्रव्यों के पर्यायों के परिवर्तन में जो को पृथक्-पृथक् अनुभव न कर एक रूप ही मानता हैसहायक होता है उसे काल द्रव्य कहते है । पुद्गल के परि जो शरीर है वही जीव है । पृथ्वी, जल, अग्नि पौर वायु वर्तित पर्याय दृष्टिगोचर होते है, इससे काल द्रव्य का । इन चार पदार्थों के संयोग से उत्पन्न हुई एक विशिष्ट पस्तित्व जाना जाता है। जो सब द्रव्यों को निवास देता प्रकार की शक्ति ही जीव कहलाती है। जीव नाम का है वह प्राकाश कहलाता है । इस तरह प्राकाश का भी पदार्थ, इन पृथ्वी प्रादि पदार्थों से भिन्न पदार्थ नहीं है। मस्तित्व सिद्ध हो जाता है। शरीर के उत्पन्न होने से जीव उत्पन्न होता है और जीवादि छह द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक शरीर के नष्ट हो जाने से जीव नष्ट हो जाता है। है-स्पर्श, रस, गन्ध पोर वर्ण से सहित होने के कारण जब जीव नाम का कोई पृथक पदार्थ ही नहीं है इन्द्रियग्राह्य-दृश्य है । शेष पांच द्रव्य प्रमूर्तिक है-रूपादि तब परलोक का अस्तित्व स्वतः समाप्त हो जाता है। से रहित होने के कारण इन्द्रियग्राह्य नहीं है। जीवद्रव्य, यह जीव विषयक भज्ञान का सबसे बृहद् रूप है । यह अपने ज्ञानगुण से सबको जानता है और पुद्गल द्रव्य चार्वाक का सिद्धान्त है। तथा दर्शनकारों ने इसे नास्तिक उनके जानने में माध्यम बनता है, इसलिए कोई द्रव्य दर्शनों में परिगणित किया है।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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