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अपचालिका
उत्तराधिकारी शिल्पियों ने उसे सम्मान देने के लिए कहा- मैं पा कि यह सब क्या हो रहा है? वह मन ही मन वहां जिनालयों का निर्माण हमा वहीं-वहीं घोड़े पर बैठे व्याकुल हो उठा, उसका हृदय सहर्ष और उल्लास की हए पागद शिल्पी की मूर्ति भी उत्कीर्ण की जाती रही है वेला में खेद खिन्न भौर दुखी था, तभी शिल्पी की मातु जिनके बाएं हाथ में चाबुक होता है जो इस बात का भी पधारी पौर कलाकार पुत्र की दुर्दशा देख बड़ी प्यषित प्रतीक है कि धर्म विरोषियों को उचित दण्ड विधान किया हुई, लोभी शिल्पी ने अपनी रामकहानी अपनी मां को बाये तथा दाएं हाथ में श्रीफल होता है जो इस बात का प्रथ विखेरते हुए सुना दी, वागद की मां ने अपने कलाप्रतीक है कि प्रभु कृपा सदा बनी रहे, एवं पाबों में खड़ाऊं कार पुत्र को धीरज बधाया और समझाया हे वत्स ! क्या उत्कीर्ण होती है जो जिनालय की पवित्रता की प्रतीक है। कला स्वर्ण के तुग्छ टुकड़ों में बिका करती है ? तुममें यह
म. बाहुबलि की श्रवणबेलगोल स्थित इस विराट दुष्प्रवृत्ति कहां से वामी? कला तो पाराधना और पर्चना कलाकृति के निर्माण के लिए इसी पागद शिल्पी को की वस्तु है, तूने तो इसे बेच कर निर्मल्य पौर कलंकित पामणराय ने मामंत्रित किया था, और अपनी माता की कर दिया है। उस चामुणराय को तो देख जो मातृसेवा अगववभक्ति उसके समक्ष प्रस्तुत की थी पर पागद उस पौर प्रभु भक्ति के वशीभूत हो तुझे इतना सब कुछ विशालकाय विन्ध्यगिरि के प्रस्तरखड को देख कर विस्मय निलोभ भाव से सहर्ष दे रहा है। अपनी श्रेष्ठतम क्ला विमग्ध हो गया था जिस पर उसे अपनी छनी हपौड़े की के पीछे इन तुच्छ स्वर्ण खंडों का लोभ तू त्याग और प्रभु कला प्रदर्शित करनी थी, उसे अपनी शिल्पकला पर को प्रणाम कर इस स्वर्ण राशि को वापिस कर पा तथा अभिमान वा पर इतने विशाल कार्य के लिए वह क्या कर अपना शिल्प वैभव निष्काम भाव से प्रभु बाहुबलि के सकेगा? उसको लोभ कषाय ने उसके अन्तस्तल को चरणों में समर्पित कर दे।
कमोर दिया। उसने प्रधानामात्य को अपने पारिश्रमिक भ. बाहबलि के शिल्पी चागद को अपनी मातु भी केप में उतनी ही स्वर्ण राशि की याचना की जितना
का उपदेश भा गया, उसके भाव बदले, लोभ कषाय का प्रस्तरक्षणवह विध्यगिरि से छीलेगा।
उसने दहन किया, माता के उपदेश और प्रभुभक्ति ने भ. बाहबलि ने भक्त चामुण्डराय ने शिल्पी पागद उसकी काया कल्प कर दी। शिल्पी चागद ने उसी समय को शतं सहर्ष स्वीकार ली और मूर्ति का निर्माण प्रारम्भ प्रतिज्ञा की कि इस मूर्ति का निर्माण निस्वार्थ पोर सेवा हमा। संध्या काल में तराजू के एक पलड़े पर शिल्पी भाव से करूंगा कोई पारिश्रमिक नहीं लूंगा और जब तक पागद के विकृत शिलाखंरथे और दूपरे पलड़े पर भगवद्- प्रतिमा का निर्माण नहीं हो जाता एकाशन व्रत धारण भवन एवं मातृ सेवक चामुणराय की दमकती हुई स्वर्ण करूंगा। शिल्पी की अंतरंग विशुद्ध ने तथा लोभ निवृत्ति राशि। पामणराय ने शिल्पी को बड़ी श्रद्धापूर्वक वह ने उसके हाथों से चिपका सोना छुड़ा दिया वह तत्काल स्वर शि समपित की, वे कलाकार की कला के मर्म को ही मागा-मागा प्रधानामात्य के चरणों में जा गिरा पौर समझते थे। तक्षक चागद पाज अपनी कला की मूल्य सारी स्वर्ण राशि मोटाते हुए बिलख-विलख कर बोला है रतनी विशाल स्वर्ण राशि के रूप में पाकर हर्ष से फला प्रभु! मेरी रक्षा करो, मेरी कला का मोल-भाव मत नहीं समा रहा था, खुसी के मारे उवे पर पहुंचने में कुछ करो और मुझे बावलि की सेवा निस्वार्थ भाव से करने विलंब से माभास होन विदित इमा। घर पहुंच कर । प्रमले दिन से शिल्पी म. बाहुबलि की प्रतिमा का कलाकार से ही अपनी कला के मूल्य को सहेज कर धरने निर्माण पूर्णतया निर्विकार भाव तथा बड़ी श्रद्धा निष्ठा लगा कि यह राशि उसके साथ सेट नहीं रही थी और एवं संयम पूर्वक करने लगा। यह त्याग मूति तक्षक चागद न उसके हस्त उस स्वर्ण प्रसग हो रहे थे दोनों एक ही १२ वर्ष की सतत तपस्या पोर साधना का पुण्य मरे से चिपके हुए थे।
फा है कि ऐसी प्रसौकिक एवं सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा का निर्माण प.बाविकी प्रतिमा का प्रधान घिल्पी पसमंजस हो सकागोजार वर्ष बाद भी भाज संसार के भक्तजनों