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________________ १२ वर्ष ३३, किरण ४ विशेष स्थानों के उल्लेख से, १६० लेख सघों एवं यात्रियों को समृद्धि से (जिनमे १०७ लेख दक्षिण से पाए हुए तथा ५३ लेख उत्तर भारत से आए हुए संघों अथवा यात्रियो के सम्बन्ध मे है) १०० व मन्दिरो के निर्माण, मूर्ति लेख प्रतिष्ठा, दानशाला, सरोवर, उद्यान आदि के निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, दानशाला, सरोवर, उद्यान यादि के निर्माण से तथा १०० दान तथा दातारों से सम्बन्धित है। शेष ७३ लेख अन्य विषयो पर है । प्रनेकान्त प्राचीन तमिल और कन्नड, तेलगु, मलयालम, मराठी भाषाधों के यह लेख अधिकतर तमिल की प्राचीन लिपि प्रत्थ-तमिल, कन्नड लिपि, मलयालम लिपि नागरी लिपि मे हैं। सम्कृत एव मराठी भाषा के लेग कन्नड लिपि में उत्कीर्ण है। कमलयालम, तमिल व तेलगु लिपि के लेखों के परि ३६ मेल देवनागरी लिपि मे तथा कुछ लेख हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों की टोकरी विधि मे भी उत्कीर्ण है । प्राचीन होने के कारण बहुत से शिलालेखो के अक्षर बिस गए हे अथवा मिट गए है कुछ लेखों को प्रज्ञानतावश मूल स्थान से उठा कर प्रन्यत्र भी जड़ दिया गया है जिससे उनका सन्दर्भ निकालना कठिन हो गया है कि वह शिनाख वस्तुतः किस स्थान के प्रति है। शिलालेखों मे अक्षर घिस जाने के कारण कही-कही पर स्थानो एव साधुग्रो व प्राचार्यो का नाम स्पष्ट हो गया है उन स्थानों अथवा महापुरुषो का प्रत्यत्र भी उल्लेख होने के कारण सम्दर्भ जोड कर उनके नाम पूरे पढे जा सके है, धथवा पूरे किये जा सके है। इन शिलालेखो द्वारा तद्वर्ती काल घथवा पूर्वकाल के दक्षिण क्षेत्र के जैन धर्मावलम्बी तथा जैन धर्म से प्रभावित नरेशो धमास्यों सेनापतियों श्रेष्ठियो आदि के विषय मे तथा विध्यगिरि पर निर्मित एक ही विषय को सबसे ऊंची ५७ फीट द्वितीय मूर्ति के श्रम त्य चामुण्ड द्वारा उत्कीर्ण कराने तथा विध्यगिरि एवं चन्द्रगिरि पर अनेक जन बस दियो स्तम्भों प्रादि के निर्माण के विषय में ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हुई है। इनमें यह भी ज्ञात होता है कि किस राजा या सेनापति के कान में कौन से जैन भाचार्य ये धौर कौन सा नरेश, प्रमात्य अपना श्रेष्ठी किन जैन प्राचयं अथवा साधु का शिष्य था । विविध भाषात्रों एवं लिपियों में उत्कीर्ण इन शिलालेखों से तथा उनके विषय से यह भी सष्ट होता है कि काल से ही श्रवणबेलगोल समस्त भारत का पवित्र तीर्थस्थल रहा है तथा यातायात के साधनों के प्रभाव मे भी इस दूरस्थ तीर्थ के प्रति उत्तर भारत तक के धर्मी बन्धु की श्रद्धा रही है और यात्रा के कष्ट उठा कर भी बह निरन्तर ही वहाँ गोम्मटेश्वर बाहुबली की मूर्ति के दर्शन के लिए आते रहे हैं इन नामो से यह भी स्पष्ट शिलालेखो होता है कि जैन संस्कृति पक्की भांति पूर्व मे भी भारत थी तथा जैन धर्म घने नरेशो द्वारा सम्मानित था। ऐतिहासिक महत्व होने के प्रतिरिक्त इन शिलालेखो द्वारा पूर्व काल मे जैन साधुम्रो के धार्मिक कृत्यो जैसे सहखनाव्रत प्रथवा समाधिमरण, व्रत, उपवास, तर ध्यान यादि के भी वर्षष्ट उल्लेख मिलते है जिनसे ज्ञात होता है कि मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने के लिए जैन साधु कितना अधिक शारीरिक परिषद झेलते थे तथा धारम चिन्तन में लीन रहतेचे साधु के मन व्रत धारण । साधुम्रो सल्लेखना करने अर्थात् समाधि मरण पूर्वक देह त्याग करने सम्बन्धी अनेक उल्लेख इन विलास मे मिलते है। धर्म भावना को बन्लर में सुरक्षित रखते हुए सयम एव साधना पूर्वक यागेर स्याय को ही सहलेखना (समाधि मरण) कहा गया है । इन जिलों में अनेक बहुत महत्वपूर्ण है और उनमे भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इनमें सबसे प्राचीन छठी शताब्दी का चन्द्रगिरि पर पार्श्वनाथ बसदि के दक्षिण की पोर बालो दिन पर पूर्व कन्नड़ लिपि में उत्कीर्ण क्रम यह गोम्मटेश्वर मूर्ति की प्रतिष्ठा से लगभग ४० वर्ष पूर्व उत्कीर्ण किया हुआ है । इसमें उल्लेख है कि त्रिकालदर्शी भद्रबाहु स्वामी को प्रष्ट निमित्त ज्ञान द्वारा यह विदित होने पर कि उज्जयिनी तथा उत्तरावल मे १२ वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ने वाला है वह अपने संघ को उत्तरापथ से दक्षिण की ओर ले गए धौर क्रम-क्रम से जनपद, नगर, ग्राम पार करते हुए 'कटव' अर्थात् चन्द्रमिरि पर पहुंचे । अन्त समय निकट जानकर उन्होने अपने सब को अन्यत्र चले जाने का निर्देश दिया और वहां पर उनके साथ केवल एक शिष्य प्रभाचंद्र
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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