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________________ सम्राट महम्मद तुगलक और महान जन शासन-प्रभावक श्री जिनप्रभसूरि जिनप्रभसूरि जी को एक उल्लेखनीय प्रतिमा- कि वह एक विद्या प्रेमी और गुणमाही शासक था। मूर्ति महातीर्थ शत्रुजय की खरतर वसही में विराजमान ऐतिहासिक जैन-काव्य-संग्रह में प्रकाशित श्री है जिसकी प्रतिकृति जिनप्रभसूरि ग्रन्थ मे दी गई है। जिनप्रभसरि के एक गीत से श्री जिनप्रभसूरि जी ने प्रश्वपति जिनप्रभसूरि की शिल्प परम्परा या गावा सतरहवी कुतुबद्दीन को भी रंजित व प्रभावित किया थाशताब्दी तक तो बराबर चलती रही जिसमे चरित्रवर्द्धन मागम सिद्धतुपुराण बखाणीइए, पडिबोहाइ सव्वलोइए । मादि बहुत बडे-बडे विद्वान इस परम्परा मे हुए है। जिणप्रभसरि गुरू सारिख उ हो, विरला दीसह कोइए। जिनप्रभसूरि का श्रेणिक द्वयाश्रय काव्य पालीताना से पाठाही, पाठामिहि च उपि, तेडावइसुरिताणु ए। मपूर्ण प्रकाशित हुआ था उसे सुसम्पादित रूप से प्रकाशन पुहसितु मुखजिनप्रभसूरि चलियउ जिमि ससि इदुविमाणि । करना मावश्यक है। प्रसपति कुतुबदोनु मनिरजिउ, दीठेलि जिनप्रभसूरि ए ॥ हमारी राय मे श्री जिनप्रभसरि जी को यही गौरव एकतिही मन सास उ पूछइ, राप मणारह पूरि ए ।। पूर्ण स्थान मिलना चाहिए जो अन्य खरतर गच्छीय चागे। दादा-गुरुषों का है। इनको इतिहास प्रकाशन द्वारा तपागच्छीय जिनप्रभसूरि प्रान्धो मे पोरोजसाह को भारतीय इतिहास का एक नया अध्याय जड़ेगा । सुलतान प्रतिबोध देने का उल्लेख मिलता है पर वे प्रबन्ध, सवा सो महम्मद तुगलक को इतिहासकारो ने प्रद्यावधि जिस वर्ष वाद के होनेसे स्मृति-दोष से यह नाम लिखा जाना दृष्टिकोण से देखा है. वस्तुतः वह एकाङ्गी है। जिनप्रभसूरि सभव है सम्बन्धी समकालीन प्राप्त उल्लेखो से यह सिद्ध होता है नाहटों को गवाड़, बीकानेर 000 (पृष्ठ १२ का शेषाश) उन्होंने परिग्रह-सग्रह से मुक्ति का सकेत दिया है। भया- सामायिक का मुख्य लक्षण हो समता है। मन को तुर व्यक्ति ही मधिक परिग्रह करता है प्रतः वस्तुप्रो के स्थिरता को साधना समभाव से ही होती है । वण-कंचन, प्रति ममत्व के त्याग पर उन्होने बल दिया है, किन्तु शत्रु-मित्र प्रादि विषमतामो मे प्रासक्ति रहित हो कर ममता के लिए सरलता का जीवन जीना बहुत प्रावश्यक उचित प्रवृत्ति करना ही सामायिक है। यही समभाव बतलाया गया है। बनावटीपन से समता नही पायेगी, सामायिक का तात्पर्य है। यथाचाहे वह जीवन के किसी भी क्षेत्र मे हो। यदि ममता समभावो सामइयं तण-कंचण सत्तु-मित्त विसत्ति । नहीं है, तो तपस्या करना, शास्त्रों का अध्ययन करना, जिरभिसचित्तं चिय पवित्तिप्पहा ॥ मौन रखना मादि सब व्यर्थ है इस तरह प्राकृत साहित्य में समता का स्वर कई कि काहदि वणवासो कायक्लेसो विचित्त उबवासो। क्षेत्रो में गंजित हुपा है । प्रावश्यकता इस बात की है कि मउभय मोणयही समवारहियस्स समणस्य। उसका वर्तमान जीवन में व्यवहार हो। बाज की विकट (नियमसार० १२४) समस्यामों से जुझने के लिए समता दर्शन का व्यापक प्राकृत साहित्य मे सामायिक की बहुत प्रतिष्ठा है। उपयोग किया जाना पनिवार्य हो गया है। 000
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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