SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अगरचन्द नाहटा और उनकी साहित्य साधना D. मनोहर शर्मा सिद्धान्ताचार्य, संघ रत्न, जैन इतिहास रल. पोर अनुसन्धान हो पब जीवन का मुख्य ध्येय बन गया। राजस्थानी साहित्य वाचस्पति, विद्यावारिधि, साहित्य इस क्षेत्र में भी प्राप सफलता की चोटी पर पहुंचने में समर्थ वाचस्पति (हि. सा०) श्री अगरचद नाहटा देश के हए । चार मो (४००) से ऊपर पत्र पत्रिकामों में ४००० प्रतिभासम्पन्न विद्वान् है । उनका व्यक्तित्व बहुमखी है। वे से ऊपर लेख लिखकर एक कीर्तिमान स्थापित किया। कला के महान प्रमोव मर्मज्ञ परातत्व और इतिहास के मापने सहप्रण: प्रन्यों का तया शाश: प्राचीन साहित्यकारों गभीर अनुसंधानकर्ता, प्राचीन साहित्य और प्राचीन प्रन्यो का अन्धकार से उद्धार किया। के अध्यवसायी अन्वेषक, सग्राहक एव उद्धारक, मातृभाषा नाहटा को कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियों का उल्लेख राजस्थानी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के श्रेष्ठ सेवक प्रौर इस प्रकार किया जा सकता है - अग्रणी साहित्यकार; मननशील विचारक, विशिष्ट सावक, १. हर लिखित प्रन्धों की खोज सफल व्यापारी और कर्मठ कार्यकर्ता है। उनका जीवन पिछले पचास वर्षों में नाहाटा जी ने सेकडों ज्ञात 'सादा जीवन पोर उच्च विचार' इम उक्ति का श्रेष्ठ निदर्शन है। वे भारत के गौरव है ऐसे विषिष्ट महापुरुष और प्रज्ञात हस्तलिखित प्रथ-भडारों की छानबीन की और भी यह अभिनदन ग्रन्थ समपित करने हप हमे गर्व का महसूश प्राचीन, नये और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का पता लगा कर उनका उद्धार किया है। इनमें पज्ञात प्रम्य भी है ज्ञात अनुभा हो रहा है। ग्रन्थो की विशेष महत्त्वपूर्ण प्रतियाँ भी, जिनमें पृथ्वीराज श्री नाहटाजी का जन्म प्राज से ६७ वर्ष पूर्व वि० गमो, वीमलदेव-गस ढोलामारू राहा, बेलि किस स. १९६७ सन् (१९११ ई.) की चत्र वदि को कमणी गै जमे पूर्व जान पन्थो की पनेक महत्वपूर्ण नय राजस्थान के बीकानेर नगर मे मम्पन्न जैन परिवार मे प्रतिवो, मुरमागर, पदमावत, बिहारी सतसई जैसे अन्य हुमा था। पारिवारिक परिपाटी के अनुसार प्रापको की प्राचीनतम प्रतिको तथा चंदायन, हम्मीगषण क्यामव स्कूली शिक्षा अधिक नहीं हुई। पाँचवी कक्षा की शिक्षा गसो एव छिनाईचरित जैसे अभी तक प्रज्ञात अथवा क पूर्ण होने के पश्चात् सं० १९८१ में जब पापको अवस्था जात ग्रन्थों की विशेष रूप से उल्लेखनीय प्रतियो के नाम १४ वर्ष की थी, पैत्रिक व्यवसाय-व्यापार मे दीक्षित होने गिनाये जा सकते है। के लिए प्रापको बेलपुर कलकत्ते भेज दिया गया। स्कूलो शिक्षा अधिक न होने पर भी अपनी अद्भुत लगन और नाहटाजी जब यात्रा में जाने हैं तो गतब्य स्थानों पर अपने अध्यवसायपूर्वक निरन्तर अध्ययन के फलस्वरूप जहाँ किसी हस्तलिखित ग्रन्य-भडार की सूचना उन्हें मिलत प्रापने अपने ज्ञान की परिधि को बहुत विस्तृत कर लिया। है वहाँ पहु नकर उसको अवश्य देखते हैं और वहां विद्यमान स. १९८४ मे, १० वर्ष की अवस्था मे, प्राप श्री महत्त्वपूर्ण ग्रन्यों का विवरण सकलित करके उसको प्रकाशित प्राचार्यप्रवर श्री कृपाचन्द्रसूरि के सम्पर्क में ग्राये। यह करवाते है । प्रापके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड साबित हया। उसने हस्तलिखित प्रन्यभंडारों की सूचियों का निर्माण प्रापके सामने पात्म शोध भौर साहित्य शांव का नया क्षेत्र नाहटा जी ने अन्य भण्डारों की वितरण 'त्मक मचि खोल दिया। व्यापार से आपने मह नही मोड़ा पर अध्ययन भी प्रस्तुत की।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy