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मात्मा सर्वथा असंख्यात प्रदेशी है
श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
प्राचाय कुन्दकुद के समयसार की {५वी गाथा में सुण्ण जाण तमत्थ · · । प्रवचनसार २/५२ ॥ गहीत 'पदेस' शब्द के अर्थ को लेकर चर्चा उठ खड़ी हुई 'उत्पाद-व्ययधोव्ययुक्त मत्' । है और इस शब्द को प्रात्मा का विशेषण मानकर इसका
सद्व्य लक्षणम् ॥'--तत्वार्थ सूत्र ३ प्रर्य प्रप्रदेश यानी पात्मा प्रदेशी है ऐसा भी किया जा ५. यदि येन केन प्रकारेण प्रात्मा का अस्तित्व सिर रहा है। जो सर्वथा-सभी नयो से भी किसी भांति उचित करने के लिए उसे एक प्रदेशी (कालवत) भी माना नहीं है। मारमा तो सर्वथा असंख्यात प्रदेशी ही है। जायगा तो प्रात्मा को सिद्धावस्था में परमाणु प्रवगाहमात्र तथाहि
प्राकाश प्रदेश को अवगाह करके ही रहना पड़ेगा और १. विवि केवलणाणं, केवलमौक्व च केवलंविरिय। जैसा कि सिद्धान्त है-सिद्धात्माए 'किचूणा चरमदेहदो केवलदिट्ठि प्रमृत्त, पत्थित सप्पसत्त ।। सिद्धाः' धनुषो क्षेत्र परिमाण प्राकाश को घेरकर विराजमान
---नियमसार १५१ है--का व्याघात होगा। सप्रदेशत्वावि स्वभावगुणा भवन्ति इति' -- टीक।। ६. प्रात्मा में प्रदेशत्व गुण नही बनेगा, जबकि
सिद्ध भगवान के केवलज्ञान, केवलदर्शन, कवलसुख, प्रदेशत्वगुण का होना अनिवार्य है --'प्रदेशवत्त्व तु लोकाकेवलवीर्य, केवलदर्शन, प्रतिकपना, अस्तित्वभाव तथा काशप्रदेश परिमापप्रवेश एक मात्मा भवति ।'-अर्थात् सप्रवेशीयता अर्थात मसरूपात प्रदेशोपना है। ये सभी एक प्रात्मा लाकाकाश जितने (असंख्यात) प्रदेश वाला स्वाभाविक गुण होते है-- जो पृथक नही हो मरते है। होता है।'..-10 भा० सि० व. २/८
२. पात्मा की गणना मस्तिकाओं में है और प्रस्तिकाय । ७ प्रदेशत्व शक्ति की सिद्धि नहीं होगी, जबकि में एक से अधिक प्रदेश माने गए है। काल द्रव्य जो मान्मा के इस शक्ति की अनिवार्यता है-... स्तिकाय नही है उसे भी किसी अपेक्षा, कम से कम एक ___'पासमार सहरण-विस्तरणलक्षिकि निदूनचरमशरीर. प्रदेशी तो माना ही गया है।
परिमाण वस्थितलोकाकाशसम्मितास्मावयवत्वलक्षणानियत. प्रसंख्येया. प्रदेशाः धर्माधर्म कजीवानाम् ।
प्रदेशत्वशक्तिः ।' माकाशस्थाऽनताः।
-- समयसार कलश स्थाढावाधिकार/२६३ टीका सख्ये यासख्येयाश्च पुद्गलानाम् ।।" -- तत्वार्थसूत्र ५ ८. प्रवचनमार में 'तिर्यकरचय' और 'ऊर्ध्व-प्रचय
.. प्रवचनसार मे प्राचाय कुन्दकुन्द ने शुद्धजीव का नामक दो प्रचय बतलाए है और कहा है कि, प्रदेशो के मस्तिकाय और सप्रदेशी कहा है। गाथा १/४१ की टीका समूह का नाम 'तिर्यकप्रचय' है। वह 'तिर्यकप्रचय' काल मे जयसेनाचार्य स्पष्ट करते है-'प्रपदेस मप्रदेश-- के अतिरिक्त सभी द्रव्यो मोर मुक्तात्मद्रव्य मे भी है । क..लाणु परमाण्वादि, सपदेस शुद्धजीवास्तिकायादि पचास्ति. इससे शुद्धनय से भी शुद्ध प्रात्मा बहुप्रदेशी ही ठहरता है । कायस्वरूपम् ।'-प्रर्थात् कालाणु परमाणु प्रादि प्रप्रदेश प्रदेशप्रचयो हि तिर्यप्रचयः' -अमृतचन्द्राचार्य । है, शुद्धजीवास्तिकायादि सप्रदेश हैं।
'स च प्रदेशप्रचयलक्षणास्तियंक्प्रचयो प्रारम को प्रप्रदेशी मानने पर उसका अस्तित्व ही यथा मुक्तात्म द्रव्थे भणितस्तथा काल नही रह सकेगा--वह शून्य-ख रविषाणवत् ठहरेगा- विहाय स्वकीय-स्वकीयप्रदेशसख्याउस्माद-व्यय-ध्रौव्य का प्रभाव होने से भी सत्ता का सर्वथा नुसारेण शेषद्रव्याणां स सभवतीति प्रभाव होगा। कहा भी है
तिर्यकचयो व्याख्याता।' 'जस्स ण सति पदेसा पदेस मेत्त तु तच्चदो णादं।
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