SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नागछत्र-परंपरा और पार्श्वनाथ D डा. भगवतीलाल पुरोहित, उज्जन (म० प्र०) इस देश और संसार मे, लोक में नाग-महिमा व्याप्त विष्णकी पहली ऐसी प्रतिमा बनवायी हो। पोर उसके है । नागो के बारे में अनन्त अनन्त लोक कथा प्रचलित संरक्षण मे वैष्णव-धर्म का पल्लवन हुआ हो। उस प्रतीक हैं। इन लोककथानों में नागो का मान करण भी हो गया के माध्यम से अपनी राजक्षमता व्यक्त करने के लिए उसने है। नाग स्वभाव से ही क्रोधी माने गए । इसीलिए गोधी यह भी घोषित करवा दिया कि शेष के सिर पर ही धरती लक्ष्मण, बलराम इत्यादि को शेष कानार माना गया। टिकी है। शेष के बिना धरती रसातल में चली जाती। शेष के सहस्र फणों पर पथ्वी टिकी है, यह भी मान्यता कहते है पार्श्वनाथ ने पूर्वजन्म में नाग की रक्षा की रही है। शेष बहुल भी माना गया है। थी। फलतः इस जन्म में पार्श्वनाथ पर कठिनायी माने विष्ण को शेष फणो में छात्र किा ननाए जाने है। । पर नाग ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया। नाग के सरक्षण ऐसी प्रतिमाएं गप्तकाल तक की प्राताती है जिनम के कारण ही पार्श्वनाथ की रक्षा हो सकी। इस कथा से देवगढ़ की शेषगायी प्रतिमा मर्वप्रसिद्ध है। गिव के यही ज्ञात होता है कि किसी समकालीन नागनप अथवा प्राभपण ही नागा के है । गत जल नागवा में उतान्न होने नाग जाति के वीर ने पावनाथ की संकट में रक्षा की से तथा बहलता के कारण शेष के अवतार माने जाते है तथा वह उनका प्रमुख सहयोगी बना। बल्कि अधिक और उनका महाभाग्य कणिभाष्य कहलाता है। मीचीन यही प्रतीत होता है कि किसी नाग के संरक्षण नागनपों का स देश में पर्याप्त वर्चस्व रहा। मही पाश्र्वनाथ के विचारों का प्रचार-प्रसार हमा। तक्षशिला, अहिच्छत्र, नागपुर, उरगपुर (उरेयु -- मदुरं) पादरीनाथ के प्रति अत्युपकार के कारण ही नागछत्र उनके इन्यादि नागरमाग तथा नागवचम्व ही अयशप है माश सदा के लिए सम्पक्त हो गया। मम्भव है नागफणों से काशी में नागनगो ने ही दम अश्वमेघ किए थे । वह स्थल गुवन पार्श्वनाण की प्रतिमा का प्रचार भी उस संरक्षक नाग ग्राज भी दशाश्वमेध घाट के नाम से प्रसिद्ध है । जनमेजय अथवा उमके उनगाधिकारियो के द्वारा ही हमा हो। का नागयज्ञ लोकविश्रत है जिसमे जनमेजय ने नागतिनाथ क्योंकि यह उनके स्वभाव के अनुरूप प्राचरण है। का वीटा ही उठा लिया था। पार्श्वनाथ को अधिक लोकप्रिय बनाने में किसी नाग का नागा का इस देश के माहित्य, कला और संस्कृति में हाथ था या उनके तयुगीन अनुयाइयों ने भी महर्ष पर्याप्त योगदान रहा है । विदिशा मे मथग तक का क्षेत्र स्वीकाग और तभी इनके साथ उपयुक्त अन्य देवों के इनके ही वर्चस्त्र में था जहा मे अनन्त अनन्न नागमूर्तियां ममान नागछत्र स्थायी रुप से जुड़ ही नही गया, बल्कि भी प्राप्त होती है। इन्होने भारतीय परम्परा के अनुरूप वह उनका प्रतीक चिन्ह भी बन गया। अपने राज्य क्षेत्र में विभिन्न धर्मो तथा उनकी परम्परामों वस्तुतः नागो के अवदान को बिसारा नहीं जा सकता को प्राथय तथा प्रश्रय दिया । अशोक ने ग्राजीवको को अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य का एक नाम मल्लनाग गहादान किया था और ब्राह्मण सातवाहनो ने बौद्धों को था। छदशास्त्र का प्रथम प्रणेता पिमलनाग था । योगसूत्र गहादान किया था। नागानो ने भी ऐसी ही उदारता तथा महाभाष्य के रचयिता पतंजलि भी नाग ही थे। दर्शायी थी। परन्तु एक चातुर्य अवश्य किया था। जिम भावातक रचयिता गप्तयुगीन गणपतिनाग था जो सम्प्रदाय को मरक्षा प्रदान कर उन्होंने पल्लवित किया ममुद्र गप्त से पराजित हुप्रा था। और इसी प्रकार अनेकानेक उमे उन्होंने नागचिन्ह में अवश्य मम्पक्त कर दिया जिसमें विद्वान हुए हैं। नाग-नपो ने साहित्य और कला के साथ उनका नागसम्बन्ध चिरविज्ञात रहे। ही भारतीय स्वयगीन विभिन्न धर्मों को भी समान प्रादर ही विष्ण की शेषशायी प्रतिमा नागो के ही राज्य क्षेत्र - नही दिया उनके साहित्य-कलादि के द्वारा प्रसार-प्रचार में देवगढ़ से प्राप्त हुई है। असभव नहीं, यह तथा रोसी भी पर्ण सहयोग दिया। भारत को नागों के अवदान सम्बन्धी प्रतिमा के निर्माण का प्रथम प्रयास नागो ने ही किया हो। विस्तृत अध्ययन से और भी अनन्त प्रहात तथ्य प्रकाशित शेष नामक नागराजा भी हुमा है । सम्भव है उसने ही होने की सम्भावना को अस्वीकार नही किया जा सकता। 000
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy