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पाटण श्वेताम्बर ज्ञान भण्डारों में विनम्बर प्रचों की प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतिया
है, ऐसा 'श्री जिन रत्नकोश' के पृष्ठ ५ में उल्लेख है । पाटण में जो इसकी टीका की प्रति मिली है उसका उल्लेख वह टिप्पणिका नामक प्राचीन ग्रन्थ सूची में होने से यह टीका और प्रति काफी प्राचीन सिट होती है। अब इस टोका के मादि और अन्त का कुछ प्रावश्यक प्रश यहाँ दिया जा रहा है। मादि:-ॐ नमो वीतरागाय । गुरुं प्रणम्य लोकेशंशिशूनामल ।।
............... ......॥१॥ ... . ........कोरिण्योथिजनासर्व पुरुषार्थसिद्धिनिमित्तं प्रमाणमनुसरंत...
अन्तः:-की सोमदेव मुनिनोदितयोगमागों,
व्याख्यात एवहिमयाऽऽत्ममते बलेन । संशोध्य शुद्धविषयोहदये नियो, योगीश्वरत्वमधिरायसमाप्तुकामः ॥१॥ श्री सोमसेन प्रतिबोधनार्था धर्मत्रिधानोरुयशः स्थिरात्मा। गढ़ार्थसदेहहरा प्रशस्ता, टीका कृताध्यात्मतरगिणीय ॥२॥ जिनेश सिद्धाः शिवभावभावाः, सुसूरयो देशक-साधुनाथा: । मनाथनाथा मथितोदोषा, भवंतु ते शाश्वतशर्मदानः ॥३॥ चंरच्चंद्रमरीचिवीविरुचिरे यच्चाहरोचिश्चये मनांगः सुरनायकः सुररुवेर्देवाधिमध्यरिव । शुक्लध्यानसितासिशातितमहाकर्मारिकक्षभयो देयानोत्रवसंभवा शुभतमा चापुत्रः संपदां ॥१॥ त्रिदर्शवसतितुटयो गूर्जरात्राभिधानो, धन कनकसमृद्धो देशनायोस्ति देशः। पसुर-सुर-सुरामाशोभिभामाभिरामोड, परदिगवनिनारीवकामाले ललाम ॥२॥ शाश्वच्छीमतुंगदेववसति: संपूर्णपण्यापणा शौंडीर्योद्मटबीरधीरवितता श्रीमाभ्यखेटोपमा। पंचकांचन कुंभकर्णविसर, जैनालय जिता संकेवास्ति विशालसालमिलया, मंदोदरोधोभिता ॥३॥
वरवटवटपल्लो तत्रविख्यातनामा, वरविनुषसुधामा देववासोरुधामा । शुभसुरभितरंभारामशोभाभिरामा, सुभसतिरिवोच्य रप्सरासम्पभामा ॥४॥ सूरस्थोचगणेभवद् यतिपतिर्वाचंयमः संयमी जज्ञेजन्मवतां सुपोतममलं योजम्मया बोषितः । जन्ये यो विजयो मनोजन पतेजिष्णोजगजन्मिनां श्रीमत्सागर मंदिमाम विदितः सिद्धांतवाधिविधुः ॥५॥ ............"तपोयतिः ललायो भव्यानिशम्य परिवर्धननीरघो। माक्ष्यसल्ल.""क: विकर्तनसत्कुठार स्तस्मादिलोभवनतोजनि स्वर्णनंदिः॥६॥
माध्यात्मतरंगिनी के कर्ता सोमदेव मुनि है। जो योगमार्ग के अच्छे ज्ञाता थे। प्रस्तुत टीका गुजरात के वटपल्ली नगर या ग्राम मे सागर नन्दी के शिष्य स्वर्णनन्दी ने बनायी लगती है। पद्याक तीन मे माग्यवेट पौर शुभतुंगदेववसति का भी उल्लेख है।
पाटण भण्डार सूची के पृष्ठ ३१ में सोमदेवसूरिचित 'नीतिवाक्यामृत' की ९५ पत्रों की प्रति संवत १२९० लि. का विवरण छपा है। लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है'सवत १२६० वर्षे प्रथम श्रावणव दि १० शनावोह श्रीमद्देवपत्तने गडधोत्रिनेत्रप्रभृतिपंचकुलप्रतिपत्तो मह सोहकेन नीतिवाक्यामृत सस्कपुस्तिका लिखापिता। मगल महाश्रोः शुभ भवतु लेखक-पाठकयोः । भवष्टि कटि etc. यादृशं etc. पाटणके भंडार मे ये महाकवि हरिचन्द्र के धर्मशम्र्माभ्युदयं काव्य की २ ताडपत्रीय प्रतियां है। जिनमे से पहली प्रति १६५ पत्रों की संवत १२ ७ को लिखी हुई है। लेखन प्रसस्ति इस प्रकार है-संवत १२८७ वर्षे हरिचंदकवि विरचित धम्मंशर्माभ्युदय काव्यपुस्तिका श्रीरलाकरसरि (२) मादेशेन कोत्तिचनगणिना लिखितमिति भद्रं ।
इसी धर्मशर्माभ्युदय की दूसरी प्रति १४८ पत्रों की है। पतः वह भी यहाँ दी जा रही है।
अपास्ति गज्वरो देशो, विस्यातो भवनत्रये धर्मचक्रभूता तीर्घनादयनिवरपि ॥१॥ विसापरं पुरं तत्र, विद्याविभवसंभवं ।