Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे सम्मति स्वीपरीपहसहनमाहमूलम्-जेणे पुणं जहाँइ जीविय, मोहं वा कसिंणं णियच्छइ ।
नरनारि पजेहे सयो तवस्सी,णे ये कोऊहॅलं उवेई से भिक्खू ॥६॥ छाया-येन पुनर्जहाति जीवित, मोह वा कृत्स्न नियन्छति ।
नरनारि प्रजहाति सदा तपस्वी, न च कौतूहलमुपैति स मिनः ॥६॥ टीका-'जेण' इत्यादि।
येन हेतुभूतेन पुनर्मुनि वित-सयमजीवीत जहाति-परित्यजति । पुन. शब्दोऽस्य सर्वथा सयमघातिता सूचयति । वा अथवा येन कृत्स्न सफल, मोहकपाय नो कपायरूप मोहनीय कर्म नियच्छतिबध्नाति । तपस्वी-तपापरायणो मुनिरेवविध नरनारिन्नरश्च नारीचेति समाहारः नर नारी च सदा मजहाति-- परित्यजति । अय भावः-स्त्री साध्वो चेत् ब्रह्मचर्यरक्षणार्थ त्यजति मुनि पुरुपश्चेत् रना स्त्रिय त्यजति अथवा मुनि स्त्र ब्रह्मचर्यपरिपालनार्थ नरनारी
'जेण पुण' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(जेण-येन) जिसके प्रसग मे आने से मुनि (जीवियजीवितम्) अपने सयमरूपी जीवन को बिलकुल ही (जहाइ-जहाति) छोड देता है अथवा (कसिण मोह नियच्छइ-कृत्स्न मोह नियच्छति) समस्त कपाय एव नो कषायरूप मोहनीय कर्म का बध करता है। इस प्रकार के (नरनारि-नरनारि) नर और नारियों का परिचय (तवस्सी-तपस्वी) तप मे परायण मुनि (पजहे-प्रजहाति) छोड देता है, तात्पर्य यह कि-अगर स्त्री अर्थात् साध्वी हो तो अपने ब्रह्मचर्य की रक्षाके लिये नर-पुरुषो के परिचय को त्याग देती है, और अगर नर-मुनि हो तो नारी-अर्थात् स्वीके परिचय को छोड देता है।
"जेण पुण" त्या
अन्वयार्थ:-जेण-येन ना असममा मापायी भुनि जीविय-जीवितम् पाताना सयभ३पी पनने जीसस जहाइ-जहाति छ। छ मथवा कसिण मोह णियच्छह-वात्स्न मोह नियच्छति समस्त पाय अने ४५५३५ माखनीय
भाना ५२ छ मा मारने नरनारी-नरनारी २ भने नारीमाना पस्थिय तवस्सी-तपस्वी तपमा ५२राय भुनि पजहे-प्रजहाति छाडी छ ताप ये કે-જે સ્ત્રી સાધ્વી હોય તે પિતાના બ્રહ્મચર્યની રક્ષા માટે “ના નામ પુરુષના પરિચયને છોડી દે છે અગર નર’ મુની હોય તે નારી અર્થાત્ સ્ત્રીના પરિચયને