Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रियदर्शिनी टीका अ १५ गा. ७ भिक्षुगुणप्रतिपादनम् च द्वयमपि त्यति एव सावी अपि नर नारी च त्यजति द्वयमपि त्यजति च-पुनः कौतूहलम् अभूक्ते विपये औत्सुक्यम् , उपलक्षणवाद् भुक्ते स्मृति च न उपैति-न पामोति, स भिशुरुच्यते ॥६॥
इत्य सिंहविहारेण परीपहसहनपूर्वक भिभुत्व समय सम्मति पिण्ड विशुद्धि द्वारेण भिक्षुत्व समर्थयतिमूलम्-छिन्न संर भोम अतलिख, सुमिणं लक्खण दंडवत्थुविजं ।
अगवियार सरस्सैविजय,जे"विजाहि ण जीई से भिक्खू ॥७॥ छाया-छिन्न म्बर भौममान्तरिक्ष, स्वप्न लक्षण दण्डवास्तुविद्यम् ।
अङ्गविकार स्वरम्य विजयः, यो विद्याभिने जीवति स भिक्षु. ॥७॥ टीका-'किन्न' इत्यादि।
वनादीना छेदनम् , तद्विपयक शुभाशुभनिस्पक मूत्रमपि छिन्नम् । छेदन अथवा माध्वी, स्त्री और पुरुप दोनों का परिचय छोड़ देती है इसी तरह साधु भी स्त्री और पुस्प दोनों का परिचय छोड देता है। तथा अभुक्त विषय में (कोउहल-कौतृहलम्) औत्सुक्यभाव का एव उपलक्षण से मुक्त में स्मृतिरूप भाव का भी (न उवेइ-न उपैति) परित्याग कर देता है । (स भिक्खू-स भिक्षुः) यह भिक्षु है ॥३॥
इस प्रकार सिंहवृत्तिपूर्वक विहार मे परीपह जय करने से मुनि मे भिक्षुता का समर्थन करके अय सूत्रकार पिण्ड विशुद्धि द्वारा भिक्षुताका समर्थन करते हैं।
'छिन्न' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-(छिन्न-छिन्नम् ) वस्त्रादिकों के छेदन से शुभाशुभ के निरूपक सूत्र का नाम छिन्नमत्र है। इसका ज्ञाता व्यक्ति वस्त्रादिकों को છેડી દે છે, અથવા સાધ્વી સ્ત્રી અને પુરુષ બન્નેને પરિચય છેડી દે છે એ રીતે સાધુ પણ સ્ત્રી તથા પુરુષ બન્નેને પરિચય છેડી દે છે, તથા અભુત વિષયમાં कोउहल-कौतूहलम् उत्सुताना सावनोसने क्षथा मुखामा स्मृति३५ लावनी पर नउवेइ-नउपैति परित्या शहेछ तेस भिक्खु-स भिक्षुः भुनि साया लिक्षुछ ॥६॥
આ પ્રમાણે સિહવૃત્તિપૂર્વક વિહારમાં પરીષહ જય કરવાથી મુનિ ભિક્ષુતાનુ સમર્થન કરીને હવે સૂત્રકાર પિડવિશુદ્ધિદ્વારા ભિભુતાનું સમર્થન કરે છે –
"छिन्न" छत्याला
सन्क्या-छिन्न-छिन्नम् वाािना छेड्नथा शुभाशुमन नि३५४ सूत्रनु નામ છિન્ન સૂત્ર છે એને જાણનાર વ્યક્તિ વસ્ત્રાદિકેને છિન્ન જોઈને અથવા તે