Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र भाग ३ ফুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুকাৰুক उस समय राज्याभिषेक महोत्सव चल रहा था । उसे ब्रह्मदत्त के दर्शन नहीं हो सके । वह वहीं रह कर उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा । महोत्सव पूर्ण होने के बाद जब नरेश बाहर निकले, तो ब्राह्मण ने सम्राट का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिये पुराने जूते को ध्वजा के समान लकड़ी पर टाँग कर ऊँचा उठाया और खड़ा रह कर " महाराज की जय हो' आदि उच्च शब्दों से चिल्लाया । सम्राट ने उसे समीप बुला कर पूछा ;--
कहो, तुम कौन हो और क्या चाहते हो?"
महाराज ! मैं वही ब्राह्मण हूँ जिसे आपने वचन दिया था कि " राज्य प्राप्त होने पर तुम आना, मैं तुम्हें संतुष्ट करूँगा।" मैंने आपको राज्य प्राप्त होने की बात सुनी, तो तत्काल आपके दर्शन को चल दिया। मैं बहुत दूर से आया हूँ महाराज! चलते-चलते मेरे जूते इतने फट गये कि जिनकी गठड़ी बँध गई । मैं यहाँ पहुँचा, तो राज्याभिषेक का महोत्सव हो रहा था। यहीं पड़ा रहा । आज मेरा भाग्य उदय हुआ है--महाराज ! जय हो, विजय हो।"
सम्राट ने ब्राह्मण को पहिचान लिया। राज्य सभा में आने पर उससे पूछा-- कहो तुम क्या चाहते हो?
"महाराज ! मैं तो आपका भोजन चाहता हूँ। बस, सब से बड़ा सुख उत्तम भोजन से आत्मदेव को तृप्त करना है स्वामिन् !"
"अरे ब्राह्मण ! यह क्या माँगा ? किसी जनपद, नगर या गाँव की जागीर माँग ले । तू और तेरे बेटे-पोते सब सुखी हो जाएँगे"--सम्राट ने उदारतापूर्वक ब्राह्मण को सम्पन्न बनाने के लिए कहा ।
"नहीं महाराज ! जागीर की झंझट में कौन पड़े ? उसकी व्यवस्था, राजस्व प्राप्ति और रक्षा का दायित्व, लोगों के झगड़े-टंटे, चोरी-डकैती आदि में उलझ कर आत्मा को क्लेशित करने के दुःख से दूर रह कर, मैं तो भोजन से ही संतुष्ट हो कर रहना उत्तम लाभ समझता हूँ। राजा भी राज्य पा कर क्या करते हैं ? उनका राज्य-वैभव यहीं धरा रह जाता है, परन्तु खाया-पीया ही आत्मा के काम आता है । बस, महाराज मेरे लिये यह व्यवस्था करवा दीजिये कि आपके साम्राज्य में प्रत्येक घर में मुझे उत्तम भोजन कराकर एक स्वगंमुद्रा दक्षिगा में मिले । ऐसी राजाज्ञा प्रसारित की जाय और इसका प्रारंभ राज्य की भोजनशाला से ही हो।"--ब्राह्मण ने अपनी माँग प्रस्तुत की।
सम्राट ने उसकी माँग स्वीकार की। उस दिन उसने वहीं भोजन किया और स्वर्णमुद्गा प्राप्त की । वह भोजन उसे बहुत रुचिकर लगा। दूसरे दिन से वह नगर में क्रमशः
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