Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
८ अकम्पित । ये मिथिला के निवासी गोतम-गौत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम 'देवशर्मा' और माता का नाम 'जयंती' था । ये ४८ वर्ष के थे।
६ अचलभ्राता । ये कोशला नगरी के हारित-गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम 'वसु' और माता का नाम 'नन्दा' था । इनकी आयु उस समय ४६ वर्ष की थी।
१० मेतार्य । ये मत्स्य देश की तुंगिका नगरी के कौडिण्य-गोत्रीय ब्राह्मण थे। पिता का नाम 'दत्त' और माता नाम 'वरुणा' था। इनकी वय ३६ वर्ष थी।
११ प्रभास । ये राजगृह के कौडिण्य-गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम 'बल' और माता का नाम 'अतिभद्रा' था। इनकी वय उस समय सोलह वर्ष की थी।
ये सभी पंडित अपने समय के प्रकाण्ड विद्वान थे और अपने-अपने सैकड़ों शिष्यों के साथ उस यज्ञ में उपस्थित हुए थे। बड़े समारोह एवं ठाठ से यज्ञ हो रहा था।
उस समय भगवान् महावीर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो कर अपापा नगरी पधारे और महासेन उद्यान में बिराजे । देवों ने भव्य समवसरण की रचना की। भगवान महावीर ने भव्य जीवों को अपनी अतिशय सम्पन्न गम्भीर वाणी से धर्म-देशना दी। भगवान् के समवसरण में देव-देवी भी आ रहे थे। देवों को आते हुए देख कर उपाध्याय इन्द्रभूति ने अपने साथी अन्य ब्राह्मणों से कहा
___ "देखो, इस यज्ञ का प्रभाव कि हमने मन्त्रोच्चार कर के देवों का आह्वान किया, तो मन्त्र-बल से आकर्षित हो कर देवगण साक्षात् ही यज्ञ में चले आ रहे है।"
किन्तु जब देवगण यज्ञमण्डप के समीप हो कर, उपेक्षा करते हुए आगे चले गये, तो उस समय वहां उपस्थित लोग कहने लगे कि
___ " नगर के बाहर उद्यान में सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवान् पधारे हैं। ये देव उन भगवन्त की वन्दना करने जा रहे हैं।"
लोगों के मुंह से 'सर्वज्ञ' शब्द सुनते ही इन्द्रभूति कोपायमान हो गए और कर्कश स्वर में बोले;--
किन्तु
आगमपाठों से दीक्षित होते समय मण्डितपुत्रजी की वय ५३ वर्ष और मौर्यपुत्रजी की ६५ वर्ष की थी। अर्थात् मण्डितपुत्रजी से मौर्यपुत्रजी वय से १२ वर्ष बड़े थे। ऐसी सूरत में मौर्यपुत्र, मण्डितपुत्रजी के छोटेभाई कैसे हो सकते हैं ? और दूसरे पति के योग से बाद में उत्पन्न होने की बात सत्य कैसे हो सकती है ?
लगता है कि गाँव और माता का एक नाम होने के कारण भ्रम हुआहोगा और इसीसे ग्रन्थकारों ने वैसा उल्लेख किया होगा। समवायांग ६५ की टीका में श्री अभयदेवसूरि भी टीका लिखते समय आश्चर्य में पड़ गए थे।
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