Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 485
________________ ४६८ तीर्थंकर चरित्र - भाग ३ -+-+-+ 1 कुलीनता होता है । उस समय राज्यों में परस्पर विग्रह दुष्काल और चोर डाकुओं का भय नहीं होता । प्रजा पर राजा नये कर नहीं लगाता । ऐसे सुखमय समय में भी अरिहंत की भक्ति से अनभिज्ञ और विपरीत वृत्तिवाले कुतीथियों से मुनियों को उपसर्ग होते हैं और दम आश्चर्य भी हुए हैं, तो तीर्थंकरों के अभाव वाले पांचवें आरे का तो कहना ही क्या है ? लोग कषाय से नष्ट हुई धर्मबुद्धि वाले होंगे, वाड़-रहित खेत के समान मर्यादारहित होंगे। ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता जायगा, त्यों-त्यों लाग कुतीर्थियों के प्रभाव में आते रहेंगे और अहिंसादि धर्म से विमुख रहेंगे । गाँव श्मशान जैसे और नगर प्रेतलोक जैसे हों । कुटुम्बीजन दास तुल्य और राजा यमदण्ड के समान होंगे। राजागण लुब्ध हो कर अपने सेवकों का निग्रह करेंगे और सेवकजन स्वजनों को लूटेंगे । 'मत्स्यगलागल' व्यापानुसार बड़ा-छोटे को लूट कर अपना घर भरेगा। अंतिम स्थान वाले मध्य स्थान में आवेंगे, और मध्य में होंगे, वे अन्तस्थानीय बन जायेंगे। सभी देश अस्थिर हो जावेंगे । चोर लोग चोरी कर के, राजा कर लगा कर और अधिकारी लोग घूस ( रिश्वत ) से प्रजा को लूटते रहेंगे। लोग परार्थ से विमुख स्वार्थ में तत्पर, सत्य, दया, लज्जा और दाक्षिण्यतादि गुगों से रहित होंगे और स्वजनों के विरोधी होंगे। शिष्य, गुरु की आराधना नहीं करेंगे और गुरु भी शिष्य भाव से रहित होंगे। शिष्य को गुरु श्रुतज्ञान नहीं देंग । क्रमशः गुरुकुलवास बंद हो जायगा । धर्म में उनकी बुद्धि मन्द हो जायगी । प्राणियों की अधिकता से पृथ्वी आकुल ( व्याप्त) रहेगी । देव-देवी परोक्ष हो जायेंगे । पुत्र पिता की अवज्ञा करेंगे, बहुएँ सर्पिण के समान और सास कालरात्रि के समान होगी । क्लीन स्त्रियें निलंज्ज होकर दृष्टि विकार, हास्य, आलाप आदि चेष्टाओं से वेश्या के समान लगेगी । श्रावक-श्र बिकासंघ क्षीण होता जायगा । ज्ञानादि एवं दानादि चतुविध धर्मक्षय होता जायगा । ताल-नाप वाटे होंगे, धर्म में भी कूड़-कपट चलाया जावेगा । सदाचारी दुःखी और दुराचारी सुखी होंगे । मणि, मन्त्र तन्त्र, औषधी विज्ञान, धन, आयुष्य, पुष्प, फल, रस, रूप, शरीर की ऊँचाई और धर्म आदि शुभ भावों की प्रतिदिन हानि होती रहेगी । इस प्रकार पुण्य के क्षय वाले काल में भी जिसकी बुद्धि धर्म में रहेगी, उसका जीवन सफल होगा । इस दुःषम नाम के पाँचवें काल में श्रमण परम्परा में अन्तिम 'दुःप्पसह' नाम वाले आचार्य होंगे, 'फल्गुश्री ' साध्वी, 'नागिल' श्रावक और 'सत्यश्री' श्राविका होगी । 'विमलवाहन' राजा और 'संमुख' मन्त्री होगा । शरीर दो हाथ लम्बा और उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष की होगी । तपस्या अधिक से अधिक बेले तक की हो सकेगी। उस समय दशवैकालिक सूत्र के ज्ञाता, चौदह पूर्वधर जैसे माने जावेंग | ऐसे मुनि दुःप्रसह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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