Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
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श्रेणिक के अंग-रक्षकों (जो सुलसा के बत्तीस पुत्र थे ) से सामना हुआ । श्रेणिक तो प्रयाण कर चुका था । अंगरक्षक वीरांगक दल से ( राजा को सकु राजगृह पहुँचाने के उद्देश्य से जूझने लगे । श्रेणिक के रक्षक वीरता पुत्रक लड़ कर एक-एक कर के मरने लगे । क्रमशः वे सब कट-मरे ।
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सुज्येष्ठा को इस दुर्घटना से संसार से ही विरक्ति हो गई। उसने पिता का आना ले कर महासता चन्दनाजी से प्रव्रज्या स्वीकार कर लो ।
श्रेणिक राजा ने रथ में बैठी हुई चिल्लता को 'सुज्येष्ठा' के नाम से सबोधित किया, तो चिल्लना ने कहा- " सुज्येष्ठा तो वहीं रह गई। मैं सुज्येष्ठा की छोटी बहिन चिल्लना हूँ ।
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प्रिये ! भले ही तुम सुज्यष्ठा नहीं होकर चिल्लना हो। मैं तो लाभ में ही रहा । तुन सुछा से कन नहीं हो " -श्रेणिक ने हँसते हुए कहा ।
चिल्लना को बहिन से बिछुड़ने का दुःख होते हुए भी पति-लाभ के हर्ष ने उसे आश्वस्त किया ।
राजगृह पहुँच कर श्रेणिक और चिल्लना गंधर्व विवाह कर प्रणवबन्धन में
बध गए ।
सुलसा श्राविका को कथा
कुशाग्रपुर नगर में 'नाग' नाम का रथिक रहता था। वह राजा प्रसेनजित का अनन्य सेवक था । वह दया, दान, शील आदि कई सद्गुणों का धारक और परनारी-सहोदर था । उसके 'मुलसा' नाम की भार्या थी । वह भी शील सदाचार और अनेक सद्गुणों से युक्त थो और पुण्यकर्म में तत्पर रहती थी। वह पति नक्ता और समकित में दृढ़ जिनांपातिका थो। पति-पत्नी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे, किन्तु पुत्र के अभाव में पति चिन्मातुर रहता था । सुलसा ने पति को अन्य कुमारिका से लग्न कर के सन्तान उत्पन करने का आग्रह किया, परन्तु नाग ने अस्वीकार कर दिया और कहा-"त्रि ! इस जन्म में तो मैं तुम्हारे सिवाय किसी अन्य को अपनी प्रिया नहीं बना सकता। मैं तो तुम्हारा कुक्षि से उत्पन्न पुत्र की हो आकांक्षा रखता हूँ। एक तुम ही मेरे हृदय में विराजमान हो । अब जोपर्यंत किसी दूसरी को स्थान नहीं मिल सकता । तुम ही किसी देव की आराधना अथ मन्त्राधना कर के पुत्र प्राप्ति का यत्न करो ।"
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