Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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हस्ति-तापस से चर्चा
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हस्ति-तापस से चर्चा
आगे बढ़ने पर हस्तितापस से मिले । उन्होंने कहा--
"मुनिजा ! जिस प्रकार आप दयालु हैं और दयाधर्म का पालन करते हैं उसी प्रकार हन भी दयाधर्म का पालन करते हैं। दूसरे लोग छोटे-छोटे अनेक जीवों को मार कर पेट भरते हैं, वैसा हम नहीं करते । हम केवल एक हाथी को मार कर उसका मांस मृग्वा कर रख लेते हैं और उसीसे वर्षभर अपनी क्षुधा शान्त करते हैं। इस एक के बदले अनेक जीवों की दया पलती है।"
मुनिराज उत्तर देते हैं--"आप वर्षभर में एक प्राणी की घात करते हुए निर्दोष नहीं माने जाते, भले ही दूसरे जीवों के आप अहिंसक बने । हाथी के मांस में सम्मूच्छिम असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं पकाने आदि में भी त्रसस्थातर जीवों की हिंसा होती है । आपकी मान्यता के अनुसार तो गृहस्थ भी निर्दोष माना जा सकता है । जो श्रमण व्रत के पालक हैं, वे यदि वर्ष में एक जीव की भी हिंसा करते हैं, तो अनार्य हैं । वे अपना अहित करते हैं । केवलज्ञानी ऐसे नहीं होते ।"
"जो सर्वज्ञ भगवान महावीर की आज्ञा से इस परमोत्तम धर्म को स्वीकार कर के मन, वचन और काया से मिथ्यात्वादि का त्याग कर, आराधना करता है, वह अपनी और दूसरी आत्मा की रक्षा करता है । संसार रूपी घोर समुद्र को पार करने के लिए विवेकी जनों को सम्पग्दर्शनादि की आराधना करनी चाहिए । मोक्ष प्राप्ति का एक मात्र यही उपाय है।
आर्द्रक मुनिराज आगे बढ़े । वे हस्ति-तापसों के आश्रम के निकट पहुँचे। वहाँ हाथी का मांस सुखाया जा रहा था। एक विशालकाय हाथी वहाँ बंधा हुआ दिखाई दिया। आर्द्रक मुनि को देख कर उस हाथी ने सोचा--"यदि मैं बन्धन-मुक्त हो जाऊँ तो इन महात्मा को वन्दन कर के जीवन सफल करूँ।" हाथी की उत्कट भावना से उसके बन्धन टूट गए और वह मुनिराज के समीप पहुँचा। हाथी को बन्धन तुड़ा कर आते हुए देख कर अन्य दर्शक भागे, परन्तु मुनिराज स्थिर खड़े रहे । गजराज ने कुंभस्थल झुका कर प्रणाम किया और सुंड से चरण स्पर्श कर अपने को धन्य मानने लगा। मुनिराज को एक दृष्टि से देखने के बाद गजराज वन में चला गया। इससे हस्ति-तापस ऋद्ध हुए । मुनिराज के धर्मोपदेश से वे प्रतिबोध पाये। उन्हें भगवान् के समवसरण में भेज कर दीक्षित करवाया।
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