Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
३६६
तीर्थंकर चरित्र - भाग ३
८८
'आप न्यायपरायण हैं । आपको निर्दोष को दण्ड नहीं देना चाहिए । मैने अपना जो परिचय दिया, उसको सत्यता शालि ग्राम से जानी जा सकती है ।"
महामन्त्री ने एक अधिकारी को शालिग्राम भेज कर पता लगाया, तो ज्ञात हुआ कि वहाँ का निवासी दुर्गचण्ड, नगर गया है। रोहिणिया बड़ा चालाक था । उसने पहले से ही ऐसा प्रबन्ध कर रखा था कि उसके विषय में किसी को कुछ पूछे, तो वह वही उत्तर दे, जो रोहिण के हित हो । अन्यथा वह उनसे घातक बदला लेगा । रोहिणिये की बात प्रमाणित हो गई। अब न्याय दृष्टि से उसे बन्दी रखना उचित नहीं था । किन्तु महामन्त्री को उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ । अन्य सभी को भी उसके चोर होने का विश्वास था । परन्तु उसके पान से न तो चोरी का कोई माल मिला और न किसी ने चोरी करते हुए देखा । वह चोर प्रमाणित नहीं हो रहा था । अभयकुमार ने उसे अपने साथ लिया । सैनिक हटा दिये गये, किन्तु गुप्त रूप से उस पर दृष्टि रखने का संकेत कर दिया ।
महामन्त्री की चाल व्यर्थ हुई
अभयकुमार रोहिणिये को स्नेहपूर्वक अपने साथ राज्य भवन में लाये । मूल्यवान् उपकरणों से सुसज्जित सप्त-खण्ड वाले भवन के ऊपर के खण्ड में उसे ठहराया । उसके स्वागत के लिए अनेक सेवक-सेविकाएँ नियत किये । उसे उच्च प्रकार की मदिरा पिला कर मद में मत्त कर दिया। उसे बहुमूल्य वस्त्रालंकार पहिनाये । भोजन-पान के पश्चात् उसके समक्ष किन्नर-कंठी गायिकाओं को गायन और कला - निपुण वादकों द्वारा सुरीले वादिन्त्र तथा नर्तकियों का नाच होने लगा। कुछ सुन्दर पुरुषों ने देवों का और सुन्दरियों ने देवांगनाओं का स्वांग रचा और रोहिण की शय्या के निकट खड़े हो कर उसकी जयजयकार करने लगे । जब रोहिण पर चढ़ा हुआ नशा कम हुआ, तो उसने भवन, उसकी सजाई, रत्नों के आभरण और गान-वादन और नृत्य देखा । उसे इधर-उधर देखते ही उपस्थित देव देवी बोल उठे ।
**
T
'जय हो स्वामी ! आपकी विजय हो । आप स्वर्ग के इस महाविमान के अधिपति देव हैं | हम सब आपके सेवक-सेविकाएँ हैं । ये गन्धर्व आपके समक्ष गा रहे हैं । देवांगनाएं नृत्य कर रही है । आप धन्य हैं। महाभाग हैं। ये देवांगनाएँ आपके अधीन हैं। आप यथेच्छ सुखोपभोग करें ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org