Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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बन्धु का संहरण
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बन्धु का संहरण
महाराजा प्रसन्नचन्द्र को ज्ञात था कि माता-पिता के वन में जाने के बाद उसके एक लघु-बन्धु का जन्म हुआ है । वह बन्धु को देखने के लिए तरसता था, परन्तु पिता की ओर से प्रतिबन्ध था । वे स्नेही-सम्बन्धी और पुत्र से भी सर्वथा निस्संग रहना चाहते थे । प्रसन्नचन्द्र सोचता-‘तपस्वी पिताजी है, लघुबंधु नहीं । उसे बरबस तपस्वी क्यों बनाया जाय ? परन्तु वह विवश था । बन्धु को वहाँ से लाने का उपाय नहीं सूझ रहा था । उसने चित्रकार को भेज कर बालक बन्धु का चित्र बनवाया और उसे ही देख कर स्नेह करने लगा । वह बन्धु को अपने पास ला कर साथ रखना चाहता था और उपयुक्त समय की प्रतीक्षा में था । अव भाई यौवन वय प्राप्त हो गया है। अब उसे लाना सहज होगा ।
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उसने कुछ वेश्याओं को बुला कर कहा
" तुम वनवासी तपस्वियों का वेश बना कर पूज्य पिताश्री के आश्रम जाओ और मिष्ट वचन, कोमल स्पर्श, उत्तम मिष्ठान्न आदि मनोहर विषयों से मेरे युवक बन्धु को अपने मोहपाश में बाँध कर यहाँ ले आओ। मैं तुम्हें भारी पुरस्कार दूंगा ।"
वेश्याएँ प्रसन्न हुई । कुछ युवती वेश्याएँ सन्यासिनी का वेश बना कर वन में गई । वे राजर्षि सोमचन्द्र की दृष्टि से बचती हुई ऋ षकुमार को खोज रही थी । वल्कलचीरी वन में से फल आदि ले कर आ रहा था। उसे देख कर सन्यासी बनी हुई वेश्याएँ उसके निकट गई। वल्कलचीरी ने उन्हें भी ऋषि समझा और प्रणाम कर के बोला
'ऋषियों! आप कौन हैं ? आपका आश्रम कहाँ है ?"
- " हे ऋषिकुमार ! हम पोतन आश्रम वासी ऋषि हैं और तुम्हारे अतिथि बन कर आये हैं" - प्रमुख वेश्या बोली ।
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–“हां, लो, ये मधुर फल खाओ । में अभी वन में से ले कर ही आ रहा हूँ ।" - " हम ऐसे निरस फल नहीं खाते । य फल तो तुच्छ हैं । हमारे आश्रम के वृक्षों के फल तो अत्यंत मिष्ठ और स्वादिष्ठ हैं और सुगन्धित भी । लो, हमारा भी एक फल खा कर देखो" - वेश्या एक वृक्ष की छाया में ऋषिकुमार के साथ बैठी और अपनी झोली में से मोदक निकाल कर दिया ।
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वल्कलचीरी को वह फल ( मोदक ) अत्यंत स्वादिष्ट लगा और अपने काषायिक आमलक आदि तुच्छ लगे । वेश्याएँ उसको स्पर्श करती हुई बैठी और उसके शरीर पर हाथ फिराने लगी । मधुर स्वर से उससे बातें करने लगी । कुमार ने पूछा-
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