Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र--भा.३
संत ने उपशम करने का कहा है । उपशम का अर्थ है--शांति धारण करना, क्रोध रूपी अग्नि को क्षमा के शान्त जल से बझाना। अर्थ के चिन्तन ने उसकी उग्रता शान्त कर दी। उसने हाथ में पकड़े हुए खड्ग को दूर फेंक दिया। इसके बाद दूसरे पद 'विवेक' पर चिन्तन होने लगा । विवेक का अर्थ 'त्याग' है । पाप का त्याग करना। उसने हिंसादि पापों का त्याग कर दिया। तीसरे पद 'संवर' का अर्थ-इन्द्रियों के विषय और मनोविकारों को रोकना, इतना ही नहीं मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति को रोक कर काया का उत्सर्ग करना।
चिलात दृढ़तापूर्वक ध्यानस्थ हो चिन्तन करने लगा। उसका मिथ्यात्व हटा, सम्यक्त्व प्रकटा । मुसुमा का मस्तक छाती पर लटक रहा है । उपसे झरे हुए रक्त से शरीर लिप्त है। रक्त को गन्ध से आकर्षित बहुत-सी वज्रमुखी चीटियाँ आई और शरीर पर चढ़ी । चीटियाँ अपने वज्रवत् डंक से चिलातीपुत्र के शरीर में छेद कर रही है । पाँवों से बढ़तेबढ़ते सारे शरीर को छेद कर उनका रक्त पो रही है। चींटियों के वज्रमय डंक से असह्य जल हो रही है। परन्तु ध्यानस्थ चिलातीपूत्र अडोल शान्त खड़े समभाव में रमण कर रहे हैं । ढई दिन तक उग्र वेदना सहन कर और देह त्याग कर वे स्वर्गवासी हुये।
पिंगल निग्रंथ की परिव्राजक से चर्चा
श्रमण भगवान् महावीर प्रभु 'कृतांगला' नगरी के छत्रपलाशक में उद्यान बिराजते थे । कृतांगला नगरी। के समीप श्रावस्ती नगरी थी। वहाँ कात्यायन गोत्रीय गर्दभाल परिव्राजक के शिष्य स्कन्दक परिव्राजक रहते थे । वे वेदवेदांग. इतिहास निघण्ट (कोश) आदि अनेक शास्त्रों के अनुभवी एवं पारंगत--रहस्यज्ञाता थे। वे इन शास्त्रों का दूसरों को अध्ययन कराते थे और प्रचार भी करते थे ।
श्रावरित नगरी में भगवान महावीर स्वामी के वचनों के रसिक 'पिगल' नामक निग्रंथ भी रहते थे। एक दिन पिगल निग्रंथ परिव्राजकाचार्य स्कन्दक के समीप आये और
पूछा;
“मागध ! कहो, १ लोक का अन्त है, या अनन्त है ? २ जीव का अन्त है, या अनन् ? ३ सिद्धि अंतयुक्त है, या अन्तरहित ? ४ सिद्ध, सान्त हैं या अनन्त ? और ५ किस प्रकार की मृत्यु से जोव संसार भ्रमण की वृद्धि और किस मृत्यु से कमी करता है ?
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