Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 475
________________ ४५८ ++++ककककककककककककक तीर्थंकर चरित्र – भाग ३ - कककककककक दृढ़ता के आगे उनकी नहीं चली और अनुमति देनी पड़ी। कुमार दीक्षित हो गये । 12 वर्षा काल था । अतिमुक्त मुनि बाहर-भूमिका गये । उन्होंने बहते हुए छोटे-से नाले को देखा । बालसुलभ चेष्टा से मिट्टी की पाल बाँध कर पाना रोका और अपना पात्र, पानी में तिरता छोड़ कर बोले--" मेरी नाव तिर रही है, यह मेरी नाव है । बाल मुनि का यह चेष्टा स्थविर मुनियों ने देखी। वे चुपचाप स्वस्थान आये और भगवान् से पूछा -- " अतिमुक्त मुनि कितने भव कर के मुक्ति प्राप्त करेंगे ? ” ― (7 कहा भगवान् ने ' अतिमुक्त मुनि इसी भव में मुक्त हो जावेंगे। तुम उसको निन्दा - हीलना एवं उपेक्षा मत करो । उसे स्वीकार कर के शिक्षादि तथा आहारादि से सेवा करो । " कककककककक - यह प्रसंग भगवती सूत्र शतक ५ उद्देशक ४ में आया है । टिप्पण-अतिमुक्त कुमार की दीक्षा छह वर्ष की वय में होने का उल्लेख टीकाकार ने किया है और कहीं का यह प्राकृत अंश भी उद्धृत किया है- "छठवरिसो पव्वइओ णिग्गंथं रोइऊण पावयति । " Jain Education International अतिमुक्त मुनि की नौका तिराने की क्रिया बाल-स्वभाव के अनुसार खेल मात्र था । जल-प्रवाह् देख कर उनके मन में असंयमी अवस्था में खेले हुए अथवा देखे हुए खेल की स्मृति हो आई और वे अपनी संयमी अवस्था भूल कर खेलने लगे । मोहनीय कर्म के उदय का एक झोका था। इसने संयम भूला दिया। यह दशा प्रमाद से हुई थी। यह दूषित एवं असंयमी प्रवृत्ति तो थी ही स्थविर सन्तों का इसे अनुचित एवं संयम - विघातक मानना योग्य ही था । परन्तु स्थविर मुनि कुछ आगे बढ़ गये । उन्होंने कदाचित अतिमुक्त मुनि को बालक होने के कारण अयोग्य समझा होगा, उन्हें दी हुई दीक्षा को भी अयोग्य माना होगा और इस विषय में साधुओं में परस्पर बातें हुई होगी । इसीलिये भगवान् ने स्थविरों को निन्दा नहीं कर के सेवा करने की आज्ञा दी । मैने कहीं पढ़ा है कि स्थण्डिल- भूमि से लौटने पर सन्तों से अपनी दूषित प्रवृत्ति की बात सुन कर अतिमुक्त श्रमण को अपनी इस करगी पर अत्यन्त खेद हुआ, खेद ही खुद में संयम- विशुद्धि का चिन्तन करते हुए एकाग्रता बढ़ी । धर्मध्यान से आगे बढ़ कर शुक्लध्यान में प्रवेश कर गए और वीतराग हो कर सर्वज्ञ - सर्वदर्शी बन गए । उपरोक्त कथन पर शंका उत्पन्न होती है, अतिमुक्त अनगार ने एकादशांग का अध्ययन किया था। इसमें भी समय लगा होगा और गुणरत्न- सम्वत्सर तप में १६ मास लगते हैं। यह तप भी बाल और किशोर वय व्यतीत होने के बाद किया होगा । अतएव नौका तिराने के दुष्कृत्य की आलोचना करते श्रेणी चढ़ कर केवलज्ञान प्राप्त कर लेने की बात समझ में नहीं आती । हुए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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