Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 482
________________ स्थति मगन की कालास्टेषिपत्र अन्गार से चर्चा ४६५ है इस प्रकार प्रयासरा । करने वाले अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर सकते। क्यों नहीं कर स ते ? इसलिये कि प्राणो परिवर्तनशील है। त्रम जीव मर कर स्थावर में उत्पन्न हो जाना है और जो वस-पर्याय में हिंसा से बचा था, वही जीव स्थावरपर्याय प्राप्त कर हिसा का विषय बन जाता है । जिस जीव की हिंसा का त्याग किया था, उसी की हिंसा वह थावक कर देता है । इस प्रकार उसका त्याग भंग हो जाता है। यदि प्रत्याख्यान में “त्रसभूत" जीव की घात का त्याग कराया जाय, तो सुप्रत्याख्यान होता है, क्योंकि स्थावरकाय में उत्पन्न होने पर वह जीव त्रसभूत नहीं रह कर " स्थावरभूत" हो जाता है।" (अर्थात् 'वस' के साथ भूत' शब्द लगाने से सुप्रत्याख्यान होते हैं) भगवान् गौतम ने उत्तर दिया--" आपका कथन उपयुक्त नहीं है । क्योंकि जीव स्थावरकाय से मर कर, त्रसकाय में भी उत्पन्न होते हैं, वे पहले हिंसा की विरति से बाह्य थे, वे त्रस होने पर विरति का विषय हो जाते हैं और हिंसा से बच जाते हैं। दूसरी बात यह है कि 'वस' और 'त्रसभूत' शब्द एकार्थक है । दोनों शब्दों का विषय वस-पर्याय ही है, फिर 'भूत' शब्द बढ़ा कर सरल को क्लिष्ट क्यों करना? शुद्ध शब्द 'त्रस' को अशुद्ध मान कर बुरा और त्रसभूत' को शुद्ध मान कर अच्छा कहने का कोई औचित्य नहीं है। स-जीव, जबतक 'त्रस नामकर्म' और 'वस आयु' का उदय हो, तभी तक वह त्रस है, 'स्थावर नामकर्म' और आयु का उदय होने पर वह तद्रूप हो जाता है--त्रस नहीं रहता । अतएव प्रत्याख्यान कराने में कोई दोष नहीं है ।" कुछ चर्चा होने पर उदकपेढाल पुत्र अनगार समझ गये। उन्होंने गौतमस्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और चार धाम धर्म से पाँच महाव्रत धर्म अंगीकार करने की इच्छा व्यक्त को। गौतम स्वामी उदकपेढालपुत्र अनगार को ले कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप आये । उदकोढालपुत्र अनगार ने भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया, पाँच महाव्रत और मप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार कर संयम का पालन करने लगे। (सूत्रकृतांग २-७) स्थविर भगवान की कालास्यवेषिपुत्र अनगार से चर्चा भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषिपुत्र अनगार एकदा स्थविर भगवंत के समाप आये और बोले "आप न तो सामायिक जानते हैं और न सामायिक का अर्थ जानते हैं । इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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