Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
तीर्थंकर चरित्र--भा. ३ .........................
-
.
-
.
आपको तप की दाहक भट्टी में झोंक दिया । वे आभ्यन्तर धुनी जला कर कर्म-का85 का दहन करने के लिए तत्पर हो गए।
धन्य अनगार पारणे के लिए भिक्षार्थ निकलते हैं, परंतु उन्हें कभी खाली--बिना आहार लिये ही लौटना पड़ता है और कभी कठिनाई से मिलता है । वे निश्चित गली-- मुहल्ले में एक बार निकलते, मिलता तो ले लेते, नहीं तो लौट आते । साधारणतया आहार प्राप्ति में इतनी कठिनाई नहीं होती, परंतु जब तपस्वी संत किसी अभिग्रह विशेष से युक्त हो कर निकलते हैं, तब कठिनाई होती है और कभी नहीं भी मिलता । धन्य अनगार के प्रतिज्ञा थी । वे वही आहार ले सकते थे, जो फेंकने योग्य होता और दाता के हाथ लिप्त होते । ऐसा योग मिलना सहज नहीं होता । ऐसे आहार के लिये वे रुक कर प्रतीक्षा नहीं करते थे।
धन्य अनगार की तपस्या चलती रही और कर्मकाष्ठ के साथ शरीर का रवत-मांस सूखता रहा। होते-होते चर्माच्छादित हड्डियों का ढाँचा रह गया--हड्डियाँ नसें और चमड़ी । उठना-बैठना कठिन हो गया। हिलने-डुलने से हड्डियाँ परस्पर टकरा कर खड़खड़ाहट की ध्वनि करने लगी। शरीर को शाभा घटो, परतु मुखकमल पर तप के तेज की शान्त-प्रशान्त शोभा बढ़ गई।
भगवान द्वारा प्रशंसित एकबार मगधेश महाराजा श्रेणिक ने भगवान् से पूछा ; -- "प्रभो ! आपके चौदह हजार शिष्यों में अत्यन्त दुष्कर साधना करने वाले संत
कौन हैं ?"
--"श्रेणिक ! इन्द्रभूति आदि सभी संत तप-संयम का यथायोग्य पालन करते हैं। परन्तु इन सब में धन्य अनगार महान् दुष्कर करणी करते हैं ।" भगवान् ने धन्य अनगार के भोगीजीवन और त्यागी-जीवन का चरिचय दिया।
महाराजा श्रेणिक धन्य अनगार के निकट आये। वन्दना-नमस्कार किया और तपस्वीराज की प्रशंसा एवं अनुमोदना करते हुए वन्दना-नमस्कार कर चले गये । धा अनगार ने नौ मास तक संयम पाला और विपुलाचल पर एक मास का संथारा पाला। आयु पूर्ण कर वे सर्वार्थ सिद्ध महाविमान में देव हुए। वहाँ की तेतीस सागरोपम की स्थिति पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य होंगे और चारित्र का पालन कर मुक्त हो जायेंगे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org