Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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बाल दीक्षित राजकुमार अतिमुक्त
४५७
-देवों के प्रिय ! मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य परम तारक श्रमण भगवान महावीर स्वामा इस नगरी के बाहर श्रीवन में विराजमान हैं । मैं वहीं रहता हूँ।"
--"भगवन् ! मैं भी आपके साथ भगवान् की वन्दना करने चलूं"--कुमार ने
पूछा।
- "जैसी तुम्हारी इच्छा"--गणधर भगवान् ने कहा ।
भगवान् के समीप पहुँच कर कुमार ने भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। भगवान् के उपदेश से राजकुमार अतिमुक्त के हृदय में वैराग्य जमा । उसने भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर कहा--
"भगवन् ! आपके उपदेश पर मुझे श्रद्धा, प्रतीति और रुचि हुई है । मैं मातापिता को पूछ कर आपके समीप दीक्षित होना चाहता हूँ।" .
"देवानुप्रिय ! तुम्हें सुख हो वैसा करो। आत्म कल्याण करने में किसी प्रकार की बाधा नहीं आनी चाहिये"--भगवान् ने कहा ।।
राजकुमार ने माता-पिता के समीप आकर कहा--"आप की आज्ञा हो, तो मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का शिष्यत्व ग्रहण कर धर्म की आराधना करूं।"
---"अरे, पुत्र ! तुम क्या जानो, दीक्षा में और संयम में ? तुम बालक हो, अनसमझ हो । तुम धर्म में क्या समझ सकते हो"--माता-पिता ने पूछा।
--"मातुश्री ! मैं बालक तो हूँ, परंतु जिस वस्तु को जानता हूँ, उसे नहीं जानता और जिसे नहीं जानता, उसे जानता हूँ"--कुमार ने कहा।
"क्या कहा तुमने--पुत्र ! स्पष्ट कहो। हम तुम्हारी बात समझ नहीं पाये "--बालक की गूढ़ बात पर आश्चर्य करते हुए माता-पिता ने पूछा।।
-"मैं यह तो जानता हूँ कि जिसने जन्म लिया है, वह अवश्य ही मरेगा, किंतु यह नहीं जानता कि वह कब, कहां और कैसे मरेगा । तथा मैं यह नहीं जानता कि किन कर्मों से जीव नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में उत्पन्न होता है, परंतु यह अवश्य जानता हूँ कि जो आने ही कर्मों से उत्पन्न होता है। इसलिये हे माता-पिता ! मुझे अमर एवं अकर्मा बनने के लिये दीक्षित होने की अनुज्ञा प्रदान करें।"
पुत्र की बुद्धिमत्ता एवं वैराग्य पूर्ण बात सुन कर माता पिता चकित रह गए । उन्होंने संयमो जीवन की कठोर साधना और उस में उत्पन्न होने वाले विघ्न-परीषहादि, का वर्णन करते हुए कहा कि इनका सहन करना अत्यंत कठिन है । लोहे के चने चबाने के समान है : इत्यादि अनेक प्रकार से समझा कर रोकने का प्रयत्न किया, परंतु पुत्र की
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