Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र -- भा. ३
वन्दन करने जाने की इच्छा होने पर भी कोई भी नागरिक नहीं जा सका। सभी ने अपनेअपने घर रह कर ही वन्दना की । एक सुदर्शन सेठ ही साहसी निकला । उसे घर रह कर वन्दना करना उचित नहीं लगा । उसने सोचा--" घर बैठे भगवान् पधारे, फिर भी मैं समक्ष उपस्थित हो कर बन्दना नमस्कार नहीं करूँ, प्रभु के वचनामृत का पान करने से वञ्चित रह जाऊँ ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मैं अवश्य जाऊँगा, भले ही यक्ष मुझे मारडाले ।
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सुदर्शन ने माता-पिता से आज्ञा माँगी । माता-पितादि ने किया, किंतु निश्चयी को कौन रोक सकता है ? विवश हो, होना पड़ा।
सुदर्शन के आत्म-बल से देव पराजित हुआ
साहसी वीर सुदर्शन श्रमणोपासक घर से निकला और धीरतापूर्वक राजमार्ग पर चलने लगा । लोग उसकी हँसी उड़ाते हुए परस्पर कहने लगे--" देखो, ये भक्तराज जा रहे हैं। जैसे राजगृह में केवल ये ही भगवान् के एक पक्के भवत हों, और सब कच्चे | परन्तु जब अर्जुन पर दृष्टि पड़ेगी, तो नानी-दादी याद आ जायगी और मल-मूत्र निकल पड़ेगा ।
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रोकने का भरपूर प्रयत्न माता-पिता को अनुमन
सुदर्शन का ध्यान भगवान् की ओर ही था, न कोई भय, न चिन्ता और न उद्वेग । वे पथ देखते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते ही जा रहे थे ।
अर्जुन के शरीरस्थ यक्ष ने सुदर्शन को देखा और क्रोधित हो कर मुद्गर उछालता और किलकारी करता सुदर्शन की और दौड़ा । सुदर्शन ने विपत्ति देखी। वह न भयभीत हो कर भागा और न चिन्तित हुआ । उसने अपना तात्कालिक कर्त्तव्य निर्धारित कर लिया । उसने वस्त्र से भूमि का प्रमार्जन किया और शान्तिपूर्वक भगवान् को वन्दना नमस्कार कर के सागारी (सशर्त) संथारा कर लिया । उसने यही आगार रखा कि 'यदि यह उपसर्ग टल जायगा, तो मैं संथारा पाल कर पूर्व स्थिति प्राप्त कर लूंगा । अन्यथा जीवनपर्यंत संथारा रहेगा।"
मृत्यु का महाभय सन्निकट होते हुये भी सुदर्शन श्रमणोपासक कितना शांत, कितना निर्भय और आत्मा में धर्म-बल कितना अधिक ? यक्ष ने मुद्गर का प्रहार करने को हाथ उठया, परन्तु वह प्रहार नहीं कर सका। उसके हाथ अंतरिक्ष में ही थम गय । धनात्मा
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