Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
राजर्षि शिव भगवान के शिष्य बने
४०३
बाईम सागरोपम की स्थिति पूर्ण कर महाविदेह में मनुष्य-जन्म पाएँगे और निग्रंथ धर्म का पालन कर मुक्त हो जावेंगे। (भगवती २-१)
गजर्षि शिव भगवान के शिष्य बने
हस्तिनापुर नरेश 'शिव' ने अपने पुत्र शिवभद्रकुमार को राज्य पर स्थापित कर 'दिशाप्रोक्षक' तापस-व्रत अंगीकार किया और बले-बेले तप करते हुए साधनामय जीवन व्यतीत करने लगे। कालान्तर में उन्हें वि भंगज्ञान उत्पन्न हो गया जिससे वे सात द्वीप और सात समुद्र देखने लगे। वे स्वयं हस्तिनापुर में प्रचार करने लगे कि-"मुझे अतिशय ज्ञानदर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे में सात द्वीप और सात समुद्र देख रहा हूँ । इसके आगे कुछ भी नहीं हैं।" इस प्रचार से जनता में शिवराजर्षि के अतिशय ज्ञान की चर्चा होने लगी।
__उस समय भगवान् महावीर प्रभु हस्तिनापुर पधारे । नागरिक ज न भगवान का वन्दन करने आये । धर्मोपदेश सुना। श्री गौतम स्वामी बेले के पारणे के लिये भिक्षाथं नगर में गये। उन्होंने शिवराजर्षि के अतिशय ज्ञान की बात सुनो और भगवान् के समीप आ कर पछा-"भगवन ! शिवराजर्षि के अतिशय ज्ञान की चर्चा नगर में हो रही है। वे कहते हैं कि पृथ्वी पर केवल सात द्वीप और सात समुद्र ही है। आगे कुछ भी नहीं है । उनका यह कथन कैसे माना जाय ?"
___-" गौतम ! शिवराजर्षि का कथन मिथ्या है । इस पृथ्वी पर स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यंत असख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं '-भगवान् ने कहा।
उस समय हस्तिनापुर के बहुत-से नागरिक वहाँ थे । भगवान् का उत्तर उन्होंने सुना । अब लोग बातें करने लगे- राजर्षि सात द्वीप और सात समुद्र के पश्चात् द्वोपसमुद्र का अभाव बतलाते हैं। उनका यह कथन मिथ्या है । भगवान् महाव र स्वामी असंख्य द्वीप-समुद्र बतलाते हैं।'
लोकचर्चा शिवराजर्षि ने भी सुनी । उनके मन में सन्देह उत्पन्न हआ । वे खंटित हए और उनका विभंगजान नष्ट हो गया । अपना ज्ञान नाट होने पर उन्हें विचार हुआ" भगवान महावीर सर्वज सर्वदर्शो हैं और यहीं सहस्राम्र वन में ठहरे हैं। मैं जाऊँ । उनकी वन्दना करूं।' वे भगवान् के समीप आये । वन्दना की, धर्मोपदेश सुना और दो क्षित होकर तपसंयम की आराधना की । वे मुक्त होगए । (भगवती सूत्र ११-१)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org