Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 454
________________ धन्ना सेठ पुत्री सुसुमा और चिलात चोर मारने के लिये विष दिया है। परन्तु मिष्ठ राजा ने रानी पर किचित् मात्र भी रोष नहीं किया और शांतिपूर्वक संथारा कर के धर्मध्यान में लीन हो गया। य पासमय आयु पूर्ण कर प्रथम स्वर्ग के सूर्याभ विमान में देव हुआ। सौधर्म स्वर्ग की चार पल्योपम की आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षत्र में मनुष्य भव प्राप्त करेगा । उस समृद्ध कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ चारित्र का पालन कर मुक्त हो जायगा । जब भगवान् महावीर प्रभु आमल कल्पा नगरी के उद्यान में विराजमान थे, तब य हो पूर्ग भदेव भगवान् को वन्दना-नमस्कार करने अपने परिवार के साथ आया था। धन्ना सेठ पुत्री सुसुमा और चिलात चोर राजगृह में धन्य सार्थवाह रहता था। उसके पाँच पुत्र और एक 'सुसुमा' नाम की रूपवती पुत्री थी। उस कन्या को खेलाने के लिए 'चिलात' नाम का दासपुत्र था। चिलात सुसुमा को अन्य बच्चों के साथ खे नाता, किन्तु उपमें चोरी को बहुत बुरी आदत थी। वह दूसरे बच्चों के खिलौने और कपड़े तथा गहने लेलेता और उन्हें मारपीट भी करता। चिलात को धत्रा मेठ ने बहुत समझाया, परन्तु उसका बुरो आदत नहीं छुटी । अन्त में उसे निकाल दिया। फिर वह निठल्ला हो कर इधर-उधर भटकता रहा और जआरी. मद्यप तथा वैश्यागामी हो गया। उसकी दुर्वृत्तियों ने उसका पतन कर दिया । वह एक डाकूदल में सम्मिलित हो कर कुशल डाकू बन गया । 'सिंहगुफा' नाम की चोरपल्ली का सरदार 'विजय' नाम का एक डाकूराज था। उस हा विश्वासपात्र बन कर चिलात' ने चोरी की सभी कलाएँ सीख लीं और विजय के मरने पर उस डाक दल का सरदार बन गया। एक दिन सभी डाकूओं को साथ ले कर वह राजगृह में धन्नासेठ का घर लूटने आया । डाकुओं को धन की लालसा थी और चिलात के मन में सुसुमा सुन्दरी बसी थी। मध्य रात्रि में डाकदल ने मन्त्रवल से राजगृह का पुरद्वार खोल कर नगर में प्रवेश किया और धन्नासेठ के घर पर हमला कर दिया। सेठ-सेठानी और पाँचों पुत्र, इस अचानक आक्रमण से भयभीत हो कर भाग गये। किन्तु सुसुमा नहीं भाग सकी । वह डाकूराज के पंजे में पड़ गई । धन्ना सेठ का लाखों का द्रव्य और सुसुमा सुन्दरी को ले कर डाकदल वन में भाग गया। शान्ति होने पर सेठ ने घर में प्रवेश किया और बिछुड़ा हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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