Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 447
________________ ४३० ............................................................... तीर्थकर चरित्र--भा. ३ --"खाली के तोल में और वायुपूरित मशक के तोल में कुछ अन्तर रहा क्या ?" --"नहीं भगवन् ! कोई अन्तर नहीं रहा । खाली और भरी हुई मशक तोल में समान ही निकली।" --"जब रूपी एवं भारयक्त वाय का वजन भी समान ही रहा, तो अरूपी जीव का कैसे हो सकता है ? अतएव हे नरेन्द्र ! जीव और शरीर की भिन्नता में सन्देह मत कर" --- महर्षि ने समझाया। (९) प्रश्न--"भगवन् ! मेरे समक्ष एक चोर लाया गया। मैने उसे ऊपर से नीचे तक सभी ओर से ध्यानपूर्वक देखा, परन्तु उस शरीर में जीव कहीं भी दिखाई नहीं दिया। फिर मैंने उसके दो टुकड़े करवाये और उसमें सूक्ष्म दृष्टि से जीव को खोज की, परन्तु नहीं मिला। फिर मैंने तीन-चार यावत् छोटे-छोटे संख्यय टुकड़े करवाये और जीव की खोज की, परन्तु निष्फल रहा। जब सूक्ष्म खोज करने पर भी जीव दिखाई नहीं दिया, तो स्पष्ट हो गया कि शरीर से पृथक् कोई जीव है ही नहीं, फिर भिन्नत्व कैसे मान ।" उत्तर--"राजन् ! तुम तो उस मूढ़ लक्कड़हारे से भी अधिक मूढ़ लगते हो ?" ---"किस लक्कड़हारे की बात कह रहे हैं महात्मन् !"--राजा ने आश्चर्य से पूछा--- --"सुन प्रदेशी ! कुछ वनोपजीवी लोग काष्ठ लेने के लिए वन में गये । वन में पहुँच कर उन्होंने अपने में से एक से कहा; ---"तुम इस अरनी । में से अग्नि प्रज्वलित कर भोजन बनाओ, हम लकड़े ले कर जाते हैं।' वे सब वन में घुस गए । वह मर्ख व्यक्ति अरनी में अग्नि खोजने लगा। एक के दो टुकड़े किये, तोन-चार करते-करते अनेक ट्कड़े कर डाले, परंतु अग्नि नहीं मिली और वह कूढ़ता ही रहा । जब लकड़ी ले कर सभी कठियारे आये और उन्होंने उस मूर्ख की बात सुनी तो बोले ;-- --' मूर्ख ! कहीं टुकड़े करने से भी अग्नि मिलती है ?" उन्होंने दूसरी लकड़ी ली और घिस कर अग्नि प्रज्वलित कर भोजन पकाया । तदनुसार तुम ने भी मनुष्य को मार-काट कर जीव की खोज की । यह उस कठियारे से किस प्रकार कम बुद्धिमानो है ?" (१०) प्रश्न - "भगवन् ! आप जैसे उपयुक्त दक्ष, कुशल, महान् बुद्धिवंत महाज्ञानी, विज्ञान सम्पन्न, विनय सम्पन्न तत्त्वज्ञ के लिए भरी सभा में मेरा अपमान करना, + एक लकड़ी जिसे घिसने-मंथन करने--से अग्नि उत्पन्न होती हैं। पूर्वकाल में अपनी का लकड़ी से अग्नि उन्न कर उससे यज्ञ करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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