Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 448
________________ के शीकुमार श्रमण और प्रदेशी की लर्चा कठोर गब्दों में मत्सना करना अ' दर करना उचित है क्या ? ' देश ने महाश्रमण क. मूहमति आदि शब्द सुन कर पूछा। उत्तर- 'राजन् ! तुम जानते हो कि परिषद (सभा) कितने प्रकार की होती हैं ?" -"हा, भगवन् ! सभा चार प्रकार की होती है । यथा-१ क्षत्रिय परिषद् २ गाथा पति-सभा ३ ब्राह्मण-सभा और ४ ऋषि परिषद् ।। -" इन परिषदों में अपराधी के लिये दण्डनीति कैसी होती है '-महर्षि ने पूछा। -"क्षत्रिय सभा के अपराधी को अंगभंग से लगा कर प्राणदण्ड तक दिया जाता है । गाथापति परिषद् के अपराधी को अग्नि में झोंक दिया जाता है। ब्रह्मण-सभा का अपराध करने वाले को कठोरतम वचनों से उपालंभ यावत् तप्त-लोह से चिन्हित किया जाता है और देश से निकाल दिया जाता है । और ऋषि परिषद् के अपराधी को मध्यम कठार वचनों से उपालम ही दिया जाता है"-प्रदेशी ने नीति बतलाई । -'राजन् ! तुम उपरोक्त दण्डनीति जानते हो, फिर भी तुमने मेरे प्रति कैसा विपरीत एवं प्रतिकूल व्यवहार किया है ?" -''भगवन् ! मेरा आपसे प्रथम साक्षात्कार हुआ है । पहली बार ही आप से संभाषण हुआ है । जब मै आप से पूछने लगा, तब मुझे लगा कि-आपके साथ विपरीत व्यवहार करने से मुझ अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त होगा, मुझे अधिकाधिक तत्त्वज्ञान मिलेगा। इसीलिये मैने आप के साथ विपरीत आचरण किया है।" महात्मा के शीकुमार श्रमण ने राजा से पूछा-"राजन् ! तुम जानते हो कि व्यवहार कितने प्रकार का है ?" -"हां भगवन् ! जानता हूँ। व्यवहार चार प्रकार का है। यथा१ एक मनुष्य किसी को कुछ देता है, परंतु मधुर भाषण से शिष्ट व्यवहार नहीं करता। २ दूसरा मीठा तो बोलता है, परन्तु देता कुछ भी नहीं। ३ तीसरा देता भी है और मिष्ट वाणी के व्यवहार से संतुष्ट भी करता है। ४ चौथा न तो कुछ देता है, न मीठे वचन बोलता है । कटुभाषण से दुःख देता है। -"राजन् ! तुम जानते हो कि उपरोक्त चार प्रकार के मनुष्यों में किस प्रकार के मनुष्य व्यवहार के योग्य हैं और कौन अयोग्य हैं ?"-महर्षि ने पूछा। -"हां, भगवन् ! प्रथम र के तीन प्रकार के पुरुष व्यवहार के योग्य है और चौथा अयोग्य है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498