Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 451
________________ ४३४ तीर्थकर चरित्र--भ ग ३ दालनकायककककककककककककककालका लवनन्दकपासना बहुमूल्य धातु अपनाता रहा. परन्तु वह लह-भारवाही अपनी हठ पर ही उड़ रहा और लोहा ले कर घर लौटा । अन्य लोगों ने रत्नों के धन मे भवन बनाये और सभी प्रकार की सुख-सामग्री एवं दस-दामियां प्राप्त कर राखी हए । उनका परिवार भी भूखा हुआ और वे लोगों में प्रमित हुए। और वह लोहे वाला दुःखी हुआ। वह अपने पारिवारिकजनों में और लोगों में निन्दित हुआ। अब वह अपने साथियों का उत्थान, सुखी जीवन देख कर पछताने लगा । लोग भी कहते-"मूर्ख ! तेरी मति पर यह लोहा क्यों लदा रहा ? तुने अपने साथी हितैषियों की सीख क्यों नहीं मानी ? अब जीवनभर पछताता और छीजता रह।" -" राजन् ! उस लोह-भारवाही मूढ़ जैसी हठ तुम्हारे हित में नहीं होगी। प्राप्न मनुष्य-भव गवा कर तुम्हें पछताना और भीषण दुःखों से भरी अधोगति में जाना पड़ेगा। अपना हित तुम स्वयं ही सोच लो"-महषि केश कुमार श्रमण ने हित शिक्षा दी । -"भगवन् ! मैं उस लोहारवाही जैसा हठी नहीं रहँगा और पश्चात्ताप करने जैसी दशा नहीं रहने दूंगा। अब मैं समझ गया है"-प्रदेशी ने अपना निर्णय सुनाया। राजा श्रमणोपासक बना राजा उठा और भक्ति-भाव पूर्वक वन्दन-नमस्कार किया, गरुदेव से धमपि देश सुना और चित्त सारथि के समान श्रावक व्रत अंगीकार कर के उठा और नगरी की ओर जाने को तत्पर हुआ, तब महर्षि केशीकुमार श्रमण ने कहा; -- -“राजन् ! तुम जानते हो कि आचार्य कितने प्रकार के होते हैं और उनके साथ कैसा व्यवहार और विनय किया जाता है ?" -"हां, भगवन् ! जानता हूँ। तीन प्रकार के आचार्य होते हैं- कलाचार्य २ शिल्पाचार्य और ३ धर्माचार्य । कलाचार्य और शिल्पाचार्य का विनय उनकी सेवासुश्रूषा करने, उनके शरीर पर तेल का मर्दन कर, उबटन और स्नान करवा कर, वस्त्रालकार और पुष्पादि से अलंकृत कर के भोजन करवाने और आजीविका के लिये योग्य धन देने तथा पुत्र-पौत्रादि के सुखपूर्वक निर्वाह होने योग्य आजीविका से लगाने से होता है । और धर्माचार्य के विनय की रीति यह है कि-धर्माचार्य को देखते ही वन्दन-नमस्कार एवं सत्कारसम्मान करना । उन्हें कल्याणकारी मंगलस्वरूप देवस्वरूप तथा ज्ञान के भण्डार मान कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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