Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रदेशी समझा x x परम्रा तोड़ी
दीपक ही हैना है तो प्रकाश के भाजन में । इसी प्रकार जीव वही वैसा ही है, समान प्रदेश वाला । अन्तर शरीर और शरीराश्रित त्रियादि से है । अतएव शरीर एवं जीव के मित्रत्व में सन्देह नहीं करना चाहिये ।"
प्रदेशी राजा समझ गया। उसे जीव के भिन्नत्व में विश्वास हो गया । परन्तु अब उसके समक्ष पूर्वजों से चला आ रही नास्तिकता खड़ी हो गई। उसने मन से निवेदन किया; --
प्रदेशो समझा + + परम्परा तोड़ी
(१३) प्रश्न- " भगवन् ! मेरे पितामह 'तज्जीव तच्छरीरवादी थे' तदनुसार मेरे पिता भी और मैं भी अबतक उसी मान्यता का रहा । पूर्वजों से चले आये अपने मत का त्याग में कैसे करूं ?
उत्तर-" राजन् ! तुम्हारे पितामह और पिता तो अनसमझ से मिथ्यावाद पकड़े रहे, परन्तु तुम समझ कर भी मिथ्यात्व को पकड़े रखना चाहते हो यह तो दुखी हो कर पश्चात्ताप करने वाले उस लोहमारवाहक जैसी मूर्खता होगी" - महर्षि ने कहा ।
'भगवन् ! लोह भारवाहक कैसे दुःखी हुआ ?
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- " कुछ लोग धन प्राप्ति के लिए विदेश गए । मार्ग में एक गहन अटवी में उन्हें लोहे से भरपूर एक खान मिली। सभी प्रसन्न हुए और जितना लोहा ले जा सकते थेलिया और आगे बढ़े। आगे उन्हें राँगा की खान मिली। उन्होंने लाहा फेंक कर राँगा लिया । परन्तु उनमें से एक व्यक्ति ऐसा था जिसने अपना लोहा नहीं छोड़ा और राँगा नहीं लिया। साथियों ने उसे समझाया कि "लोहा फेंक दे और राँगा ले ले । राँगा मूल्यवान् है, इसे बेच कर बहुत सा लोहा प्राप्त किया जा सकता है - कई गुना ।" परन्तु वह नहीं माना और कहने लगा; --
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'मैं ऐसा अस्थिर विचारों वाला नहीं हूँ जो एक को छोड़ कर दूसरे को पकड़े और बार-बार बदलता रहे। मैं स्थिर मन वाला हूँ। एक बार जिसे अपनाया, उसे जीवन भर निभाने वाला हूँ - प्रागण से । तुम्हारी सीख मुझे नहीं चाहिये ।'
सार्थ आगे बढा । वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता रहा, त्यों-त्यों क्रमश: तांबा, चाँदी, सोना, रत और वज्र रत्न की खा मिलती गई और वे अल मूल्य वाली वस्तु छोड़ कर
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