Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 445
________________ ४०८ तीर्थंकर चरित्र - भा. ३ उत्तर -- "प्रदेशी ! अमूर्त जीव के निकलने में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं होती । जैसे किसी कूटाकार गृह में एक पुरुष भेरी (नगारा ) लेकर बैठा हो और उस गृह के द्वार खिड़कियाँ यावत् छिद्र तक बंद कर दिये हों । वह पुरुष उस बंद घर में डंड से नगारा बजावे, तो उसकी ध्वनि ( घोष ) बाहर आता है या नहीं ?" "हां भगवन् ! उस भेरी का नाद बाहर आता है '-- प्रदेशो बोला । --" अब बताओ कि भेरी का नाद कोई छिद्र बना कर बाहर आता है ?" अनगार भगवंत का प्रति प्रश्न | "नहीं, भगवन् ! भेरी का नाद बिना छिद्र किये ही आता है ।" --" राजन् ! शब्द एवं ध्वनि जो वर्णादि युक्त है, बिना छिद्र किये ही बाहर निकल आता है, तो वर्णादि रहित अरूपी आत्मा के बाहर निकलने में सन्देह ही कौनसा रहता है ? अतएव शरीर और जीव को पृथक् मानना चाहिये - - श्रमण महर्षि ने समाधान किया । ( ५ ) प्रश्न - - " भगवन् ! आप विद्वान हैं, ज्ञानी हैं और चतुर हैं, सो दृष्टांत देकर निरुत्तर कर देते हैं । परंतु मेरा समाधान नहीं होता । एक दिन नगर-रक्षक मेरे समक्ष एक चोर को - साक्षी रहित लाया। मैंने उसे प्राणदण्ड दिया और जीव रहित कर के एक लोहे की कोठी में बंद करवा कर पूर्व की भाँति सारे छिद्र बंद करवा दिये। कालान्तर में मैने उस कोठी को देखा, तो उसके छिद्र पूर्णरूप से बंद थे । कोठी खुलवा कर देखी तो उस चोर के मृत शरीर में कीड़े कुलबुला रहे थे । प्रश्न होता है कि वे कीडे बिना छिद्र किये उस लोहमय कुंभी में घुसे कैसे ? इससे लगता है कि जीव और शरीर एक है, भिन्न नही " - प्रदेशी ने तर्क उपस्थित किया । ठोस गोले को अग्नि से तप्त किया हुआ तुमने देखा अग्नि जैसा हो जाता है ।" उत्तर- " राजन् ! लोहे के होगा -- जो भीतर-बाहर पूर्णरूप से "हां, भगवन् ! देखा है । गोला अग्नि जैसा हो जाता है । उसमें अग्नि प्रवेश कर जाती है " - प्रदेशी का उत्तर । --" वह अग्नि उस गोले में छिद्र करके घुसती है, या बिना छिद्र किये " -- महर्षि का प्रतिप्रश्न | "बिना छिद्र किये ही घुस जाती है" --राजा का उत्तर । इसी प्रकार हे नराधिप ! जीव के प्रवेश करने में भी किसी प्रकार के छिद्र की आवश्यकता नहीं रहती । जीव के गमनागमन में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं होती ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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