Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
४१४
तीर्थकर चरित्र-भाग ३ ဖုန်း ••••••••••••••••••••••••••••ဂန်နယ်ဖန်
अब नहीं रुकूँगा"-राजा शीघ्र ही त्यागी बनने को तत्पर हुआ।
"स्वामिन् ! जब आप ही त्यागी बन कर जा रहे हैं, तो मैं पुत्र-मोह से संसार में क्यों रुकूँ ? नहीं, मैं भी आप के साथ ही चल रही हूँ। आप पुत्र का राज्याभिषेक कर दीजिये । मन्त्रीगण विश्वस्त हैं। इसलिए पुत्र और राज्य को किसी प्रकार का भय नहीं है।"
पुत्र का राज्याभिषेक कर के राजा और रानी, एक धात्री को साथ ले कर वन में चले गये और एक शून्य आश्रम को स्वच्छ बना कर ‘दिशा-प्रोक्षक' जाति के तापस हो कर रहने लगे । वे सूखे हुए पत्रादि खा कर तप साधना करते । उन्होंने घास-पात छा कर पथिकों के विश्राम के लिए मढ़ी बना ली। पत्नी के लिये पति स्वादिष्ट जल और फलादि ला कर खिलाता और पत्नी, पति के लिए कोमल घास का बिछौना आदि सेवा करती । वह ऐसे पके बीज वाले फल लाती, जिन्हें पीस कर तेल निकाला जा सके । उस तेल से वह दीपक जलाती, आंगन को लीपती और झाड़-बुहार कर स्वच्छ बनाती ।
पति-पत्नी, मृग-शावकों को पाल कर संतुष्ट रहते और अपनी तप साधना भी करते रहते । समय पूर्ण होने पर तापसी रानी ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। बालक प्रभावशाली एवं आकर्षक था । वन में उनके पास वस्त्र नहीं थे । इसलिये वल्कल (वृक्ष की छाल) से लपेट कर पत्र को रखने लगे। इसलिये बालक का नाम "वल्कलचीरी" रख दिया । पुत्र-जन्म के कुछ काल पश्चात् धारिनी देवी परलोक सिधार गई । बालक को तपस्वी सोमचन्द्र ने धात्री को दिया। वह वनचर भैंस का दूध पिलाती और बालक की सेवा करती। परन्त धात्री भी कुछ काल बाद मर गई। अब तो तपस्वी सोमचन्द्र को ही बालक को संभालना पड़ा । वे तपस्या भी करते और बालक को भी संभालते । धीरे-धीरे बालक बड़ा होने लगा । वह वनने फिरने योग्य हुआ, तो मग-छोनों के साथ खेलता । तपस्वी सोमचन्द्र पुत्र के लिए बन में उत्पन्न धान्य लाता, उसे कूटता-पीसना, लकड़े भी लाता और भोजन बना कर बालक को खिलाता-पिलाता, फल भी खिलाता और भैंस का दूध भी पिलाता । बालक बड़ा हुआ और पिता की तपस्या में सहायक बनने लगा। अब वह तपस्वी पिता के शरीर पर तेल का मर्दन करता और फल आदि ला देता । वह य होने पर भी इतना भोला और सरल रहा कि उसके लिये स्त्री सवधा परिचित रही। वह न तो कुछ पढ़ सका था और न अन्य मनुष्य के सम्पर्क में आ सका था। उसके fi तो पिता और मृग आदि वनचर पशुओं के अतिरिक्त कुछ था ही नहीं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org