Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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बन्धु का संहरण ${• ••••••••••••
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इसोसे यह इस प्रकार बोलता है"--रथिक ने पत्नी का समाधान किया।
कुमार रथिक, घोड़ों को चाबुक से मारते देख कर बोला; --
"हे तात ! आप इन मृगों को रथ में क्यों जोतते हैं और ये मग भी कैसे हैं ? मुनि को मगों को जोतना और मारना उचित नहीं है ।"
रथिक हँमा और बोला--"मुनिकुमार ! ये मृग इसी काम के हैं । इनको मारने में कोई दोष नहीं है ।"
रथिक ने ऋषिपुत्र को मोदक दिये। वह मोदक के मोह में बन्धा हआ ही पोतनाश्रम जा रहा था। मार्ग में रथिक को एक चोर मिला । रथिक ने चार को मारा और मरण तुल्य बना दिया। रथिक के बल से पराभूत बलवान् चोर प्रभावित हुआ और अपना धन रथिक को दे दिया। पोतनपुर पहुँच कर रथिक ने वल्कलचीरी से कहा ;--"तुम्हारा पोतनाश्रम यही है, जाओ।" रथिक ने उसे कुछ धन भी दिया और कहा--" यह धन तुम्हारे काम आएगा। इस आश्रम में धन से ही रहने को स्थान और खाने को भोजन मिलता है।"
वल्कलचीरी ने नगर में प्रवेश किया। बडे बडे भव्य-भवन देख कर वह चकराया। वह नगर में भटकता रहा और पुरुषों और स्त्रियों को देखते ही ऋषि समझ कर प्रणाम करता रहा । लोग उसकी हँसी उड़ाते रहे। वह सभी घरों को आश्रम ही मानता रहा और इस द्विधा में रहा कि 'किस आश्रम में प्रवेश करूँ।' हठात् वह एक भवन में चला गया। वह भवन वेश्या का ही था । कुमार ने वेश्या को प्रणाम किया और कहा--
"हे मुनि ! मैं आपके आश्रम में रहना चाहता हूँ। इसके भाड़े के लिये यह द्रव्य ग्रहण करो।"
--“हे ऋषि कुमार ! यह सारा आश्रम ही तुम्हारा है। प्रसन्नता से रहो"--वेश्या ने स्नेहपूर्वक कहा।
वेश्या ने नापित को बुला कर कुमार को समझा-बुझा कर उसके बढ़े हुए बाल और नख कटवाये और वल्कल के स्थान पर वस्त्र पहिनाने के लिए जिस समय उम पर से वल्कल हटाया जाने लगा, उस समय वह विह्वल हो कर चिल्लाने लगा और कहने लगा-- "हे मुनि ! मेरा वल्कल मत उतारो।"
वेश्या ने कहा--"हमारे आश्रम में वल्कल नहीं पहनते। ऐसे वस्त्र पहले जाते हैं।" बड़ी कठिनाई से समझा कर वस्त्र पहिनाये । उसके बालों में सुगन्धित तेल लगाया। शरीर पर तेल का मर्दन किया। उष्ण जल से स्नान करवाया, श्रेष्ठ वस्त्रालकार
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