Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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केशी कुमार श्रमण और प्रदेशी की चर्चा
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-- भगवन् ! आप महाज्ञानी और विशुद्ध संयमी हैं ?''
--" राजन् ! तुम्हारा व्यवहार तो उन कर-चोर व्यापारियों जैसा है, जो राज्य का कर चुराने के लिए राजमार्ग छोड़ कर उन्मार्ग पूछते हैं । तुम भी श्रमणों से पूछने के शिष्ट व्यवहार को छोड़ कर बिना विनयोपचार किये पूछ रहे हो। मुझे देख कर तुम्हारे मन में यह विचार हुआ कि-"ये जड़-मूढ़ अज्ञानी कौन हैं ?"--श्रमण महर्षि ने राजा को सहसा प्रभावित कर दिया।
--"हाँ, भगवन् ! आपका कयन सत्य है। मेरे मन में ऐसे विचार उत्पन्न हुये थे । परन्तु आपको इतना अधिक ज्ञान है कि मेरे मनोगत भाव जान लिये"--आश्चर्य पूर्वक पूछा।
-“राजन् ! मत्यादि पाँच प्रकार का ज्ञान होता है। इनमें से केवलज्ञान छोड़ कर चार ज्ञान मुझे है और इससे मैं मनोगत संकल्प जान लेता हूँ।"
--"भगवन् ! मैं यहाँ बैठ जाऊँ ?"
--"राजन् ! इस भूमि के तो तुम ही शासक--आज्ञापक हो। मेरा यहाँ स्वामित्व नहीं है, जो में आज्ञा दूं।"
राजा समझ गया और चित्त के साथ बैठ कर पूछा--
(१) "महात्मन् ! आप श्रमण निग्रंथों का ऐसा विचार मन्तव्य एवं सिद्धांत है कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है। अर्थात् शरीर और जीव एक ही है--ऐसा आप नहीं मानते ?
--"हाँ, राजन् ! हम जीव और शरीर को एक नहीं, भिन्न-भिन्न मानते हैं"-- श्रमणमहर्षि ने कहा।
(२)--"भगवन् ! आपके सिद्धांत को मैं सत्य कैसे मानूं ? इसकी सत्यता का एक भी प्रमाण मुझे नहीं मिला। मेरे पितामह बहुत ही अधर्मी थे । उनका जीवन हिंसादि पापों से ही भरा हुआ था। आपके सिद्धांत से तो वे नरक में ही गये होंगे । मैं उसका अत्यन्त प्रिय था। मुझ पर उनका प्रगाढ़ स्नेह था। वे मेरे मुख में सुखी और मेरे तनक भी दुःख में स्वयं दुःखी रहते । मुझे वे अपनी आत्मा के समान ही मानते थे। यदि शरीर और जीव पृथक् होते और मेरे दादा मर कर नरक में गये होते, तो वे यहाँ आ कर मुझे अवश्य कहते कि-"वत्स ! तू पाप करना छोड़ दे । पाप करने से नरक के महान् दुःख भोगना पड़ते हैं । मैं स्वयं पाप का फल भोगता हुआ दुःखी हो रहा हूँ।" तो मैं जोव और शरीर भिन्न मानता। मेरे समक्ष ऐसा कोई आधार ही नहीं है, तो मैं कैसे मानूं कि जोव
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