Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
पक गई और तुझे पीड़ित करने लगी, तो तेरे स्नेही पिता तेरी अंगुली अपने मुंह में ले कर चूसते और पीप निकाल कर थूकते । इससे तुझे शान्ति मिलती। ऐसा उन्होंने कई बार किया । ऐसे वात्सल्य-धाम पिता की तुने जो दशा की। वह तो एक कुल कलंक, शत्रु ही कर सकता है।"
--"परन्तु माता ! पिताजी तो हम भाइयों में भेद रखते थे। वे अच्छी वस्तु मेरे छोटे भाई को देते थे और निम्न कोटि की मुझे देते थे । क्या यह प्रेम का प्रमाण हैं" --कूणिक ने पूछा।
--"यह भेद भाव तो मैं रखती थी। क्योंकि तेरे लक्षण मेरे समक्ष गर्भ में ही प्रकट हो गए थे'--माता ने कहा ।
श्रेणिक का आत्मघात
माता की बात का कूणिक पर अनुकूल प्रभाव हुआ । उसका वैरोदय नष्ट हो चुका था। उसके हृदय में पश्चात्ताप की अग्नि धधक उठी और पितृ-भक्ति जगी । वह यह बोलता हुआ उठ गया कि--"मैं कितना अधम हूँ। मुझे धिक्कार है कि मैंने बिना विचारे महान् अनर्थ कर डाला। दुष्ट-बुद्धि ने मुझे कल कित बना दिया। माता ! मैं जाता हूँ, अभी पिताजी को मुक्त कर के उन्हें राज्यासन सौंपता हूँ।"
___ कूणिक उठा और पुत्र को माता को दे कर पिता की बेड़ी तोड़ने के लिए एक परशु उठा कर बन्दीगृह की ओर चला। दूर से प्रहरी ने देखा, तो श्रेणिक से कहा-- "महाराज इधर ही पधार रहे हैं और उनके हाथ में परशु है। मुझे भय है कि कुछ अनर्थ नहीं कर दे।" श्रेणिक ने भी देखा । उसे लगा कि पुत्र के रूप में काल निकट चला आ रहा है । अब मुझे आत्म-हत्या ही कर लेनी चाहिये। इस प्रकार सोच कर उसने तालुपुट विष (जो अंगूठी में था) ले कर जीभ के अग्रभाग पर रखा । विष रखते ही व्याप्त हो गया और तत्काल प्राण-पंखेरु शरीर छोड़ गये। उनका मृत-देह ढल कर पृथ्वी पर गिर पड़ा । कूणिक निकट पहुँचा, तो उसे पिता का शव ही मिला।
कूणिक को पितृशोक कणिक ने पिता को गतप्राण पाया, तो उसे घोर आघात लगा। वह छाती पीट कर उच्च स्वर से रोने लगा। मिलाप करता हुआ वह बोला--
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