Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चम्पा नगरी का निर्माण और राजधानी परिवर्तन .............................................................
___ “पिताजी ! मैं महापापी हूँ, कुपुत्र हूँ। मेरे जैसा कुष्त्र संसार में कोई दूसरा नहीं होगा । माता के वचन से मेरे मन में पश्चात्ताप की भावना उत्पन्न हुई थी और में आपसे क्षमा माँगने तथा मुक्त कर के पुनः पूर्व स्थिति में रखने आया था । परन्तु आपने मुझ कुपुत्र को क्षमा मांगने का भी अवसर नहीं दिया। हा दुर्देव ! मुझे पितृ-द्रोही पितृघातक क्यों बनाया ? मेरे इस घोर पातक का प्रायश्चित्त तो अब आत्मघात ही है । मै भृगुपात कर के मरूँ, अग्नि में जल कर, पानी में डूब कर या शस्त्र प्रयोग कर के आत्मघात करूँ और इस कलंकित जीवन का अन्त कर लूं।"
मन्त्रियों ने समझा कर श्रेणिक नरेश के देह की उत्तरक्रिया करवाई ।
पिण्डदान की प्रवृत्ति
पश्चात्ताप एवं शोकातिरेक से कूणिक का स्वास्थ्य गिरने लगा। राजा की दशा देख कर मन्त्रीगण चिन्तित हुए। उन्होंने मन्त्रणा कर के राजा का शोक दूर करने का उपाय निश्चित किया । फिर एक पुराना ताम्र-पत्र लिया और उस पर यह लेख खुदवाया कि--
"पुत्र-प्रदत्त पिण्डदान मृत पिता को प्राप्त होता है।"
यह लेख राजा को दिखा कर कहा-"महाराज ! आप शोक ही शोक में अपना कर्तव्य भूल रहे हैं । हमें यह प्राचीन लेख मिला है । इसमें लिखा है कि पुत्र को चाहिये कि दिवंगत पिता को पिण्ड-दान करे । वह पिण्डदान पिता की आत्मा को प्राप्त होता है और वह आत्मा, पुत्र के दिये हुए पिण्ड का भोग कर तृप्त होती है । आप शोक त्याग कर अपने कर्तव्य का पालन करिये । स्वर्गीय महाराज की आत्मा आप के पिण्डदान की प्रतीक्षा कर रही होगी।"
कूणिक ने मन्त्रियों की बात मानी और पिण्डदान किया । ग्रंथकार लिखते हैं कि "तभी से पिण्ड दान की प्रवृत्ति चालू हुई।" कूणिक पिण्डदान कर के आश्वस्त रहने लगा।
चम्पा नगरी का निर्माण और राजधानी का परिवर्तन
कूणिक जब पिता का आसन, शय्या आदि देखता और माता की दुरावस्था का विचार करता, तो उसके हृदय में एक टीस उठती और वह शोकातुर हो जाता । अब उसका
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