Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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शरणागत का संरक्षण
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महारानी पद्मावती इसी विचार में डूब गई । उसने निश्चय कर लिया कि महाराज से कह कर ये अलंकरण इन से लिवाना चाहिये । जब कूणिक नरेश अंत:पुर में आये, तो अबरार देख कर रानी ने कहा--
__“प्राणेश ! आपके बन्धु विहल्ल बेहास के पास जो दिव्य हार कुण्डल और हस्तिरत्न है, वह तो आपके योग्य है । राज्य की श्रेष्ठतम वस्तु का उपभोग ता राज्य का स्वामी हा करता है, अन्य नहीं । ये वस्तुएँ आप उससे ले लेवें।"
“नहीं प्रिये ! ये वस्तुएँ तो पिताश्री ने उन्हें दी थी। इन्हें उनसे लेना अनुचित होगा। लोक में निन्दा होगी। पिताश्री के देहावसान के बाद तो इन बन्धुओं पर मेरा अनुग्रह विशेष रहना चाहिये"-कूणिक ने कहा।
-"यदि आप इन उनमोत्तम अलंकारों से वंचित हैं, तो आप निस्तेज रहेंगे। शाभा में इन से वृद्धि होता है, वह आपकी नहीं, आपके भाई को होगी। मैं इसे 'सहन नहीं कर सकूँगी"-रानी ने रूठने का डौल करते हुए कहा।
मोह का मारा कणिक दबा और बन्धु से हार आदि लेने का वचन दे कर रूठी हुई प्रियतमा को मनाया।
कूणिक ने भाइयों से हार हाथी की मांग की, तो विहल्ल-वेहास ने कहा-"हमें पिताश्री ने दिये हैं। यदि आपको हार और हाथी लेना है, तो आधा राज्य हमें दीजिये और हार-हाथी आप ले लीजिये ।" कणिक नहीं माना, तो वे अनुकूल अवसर देख कर रात्रि के समय अपनी रानियों के साथ दिव्य अलंकार और अन्य आवश्यक वस्तु ले कर चल निकले और वैशाली नगरी में अपने मातामह (नाना) के पास चले गये । चेटक नरेश ने अपने दोहित्रों का स्नेहपूर्वक चुम्बन किया और युवराज के समान रखा ।
शरणागत का संरक्षण
दूसरे दिन कणिक नरेश को ज्ञात हुआ कि विहल्ल और वेहास रात्रि में ही रानियों और दिव्य वस्तुओं के साथ निकल कर कहीं चले गये हैं । खोज हुई तो ज्ञात हुआ कि 'वैशाली की ओर गये हैं । यही सम्भावना थी । कूणिक के लिये अब चुप बैठना प्रतिष्ठा का विषय बन गया था। पत्नी के दुराग्रह और अपनी मोह-मूढ़ता उसे युद्ध की ओर घसीट रही थी। उसने एक दूत विशाला नरेश-अपने सगे नाना-के नास भेज कर अपने भाइयों की सम्पत्ति सहित माँग की । दुत ने महाराजा चेटक को प्रणाम किया। कुशलक्षेम के
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