Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र - भाग 3
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कूणिक पूर्वभव में तपस्वी था ही। इस बार भी वह एकाग्रता पूर्वक तपयुक्त देव का आह्वान करने लगा । साधना सफल हुई। भवनपति का चमरेन्द्र और सौधर्म देवलोक का स्वामी शकेन्द्र/आकर्षित हो कर उपस्थित हुए और पूछा - " कहो, क्यों आह्वान किया ? "
--" देवेन्द्र ! मैं संकट में हूँ। मेरी सहायता कीजिये और दुष्ट चेटक को नष्ट कर दीजिये । उसने मेरे दस बन्धुओं को सेना सहित मार डाला और मुझे भा मारने पर तुला हुआ है " -- कूणिक ने याचना की ।
-" कूणिक ! तुम्हारी मांग अनुचित है । चेटक नरेश श्रमणोपासक हैं और मेरे साधर्मी हैं । मैं उन्हें नहीं मार सकता। हां, उनसे तुम्हारी रक्षा करूँगा । वे तुझे जीत नहीं सकेंगे " -- शक्रेन्द्र ने कहा ।
शिला कंटक संग्राम
कूणिक को इससे संतोष हुआ । कूणिक शस्त्रसज्ज हो कर अपने 'उदायी' न नक हस्ति रत्न पर आरूढ़ हुआ । देवेन्द्र देवराज शक्र ने एक वज्रमय कवच की विकुर्वणा कर के कूणिक को सुरक्षित किया। फिर इन्द्र ने महाशिलाकंटक संग्राम की विकुर्वणा की । इस युद्ध में एक मानवेन्द्र और दूसरा देवेन्द्र था और विपक्ष में चेटक नरेश अठारह गणराजा और विशाल सेना थी। परिणाम में शत्रु सेना की ओर से आई हुई बड़ी शिला भी एक छोटे कंकर के समान और भाले-बछ कंटक के समान लगे और अपनी ओर से बरसाये हुए कंकर भी महाशिला बन कर विनाश कर दे। अपनी ओर से गया हुआ कंटक भी भाले के समान प्राणहारक बन जाय । आज के इस देव चालित युद्ध ने शत्रु सेना का विनाश कर दिया । बहुत-से मारे गये, बहुत से घायल हुए और भाग भी गये । गण राजा भी भाग खड़े हुए। इस एक ही संग्राम में चौरासी लाख सैनिक मारे गये और नरकतिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न हुए ।
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रथमूसल संग्राम
दूसरे दिन रथमूसल संग्राम मचा। अपनी पराजय और सुभटों का संहार होते पुनः व्यवस्थित होकर चेटक नरेश अपने मित्र अठारह गणराजाओं के साथ सेना
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7 शकेन्द्र तो कार्तिक सेठ के भव में कूणिक के पूर्वभव का मित्र था और चमरेन्द्र तापसभव का साथी पूरण नामक मित्र था। इसी से वे सहायक हुए ।
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