Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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महाराजा चेटक का संहरण और स्वर्गवास
अटूट होने का कारण खोजने लगा । फिरते-फिरते उसे श्रीमुनिसुव्रत स्वामी वा स्तूप / दिखाई दिया । वह स्तूप उत्तम नक्षत्र योग युक्त होने के कारण ही वैशाली की सुरक्षा होने का उसे विश्वास हुआ । अब उसे उस स्तूप का उच्छेद करना था । इसी उद्देश्य से वह नगरी में घूमने लगा । इस मुनिवेशी को देव कर नागरिकों ने कहा-
".
'भावत् ! शत्रु के घेरे से हम बहुत दुःखी हैं। कब तक बन्दी रहेंगे हम ? आप जैसे तरी महात्मानो सब कुछ जानते हैं । कोई उपाय बताइये इस से उगरने का ?" "हां. भाई ! तुम लोगों को कठिनाई देख कर मुझे खेद हुआ । मैंने इसका उपाय भी जान लिया है । तुम्हारा इस नगरी में जो वह स्तूप है, उसकी स्थापना खोटे लग्न एवं कुयोग में हुई थी। उसी से इस राज्य पर संकट आते रहते हैं । यदि वह स्तूप तोड़ दिया जाय, तो संकट मिट सकता है ।"
धूर्त कुलवालुक की बात पर लोगों ने विश्वास कर लिया। सभी स्तूप को तोड़ने के लिए चले और तोड़ने लगे। उस समय कुलवालुक के कहने पर कूणिक ने घेरा उठा कर सेना को कुछ दूर ले गया। लोगों को विश्वास हो गया और उत्साह के साथ स्तूप तोड़ने लगे और अंत में समूल नष्ट कर दिया । कूणिक को बारह वर्ष के बाद वैशाली को नष्ट करने का अवसर मिला ।
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महाराजा चेटक का संहरण और स्वर्गवास
वैशाली का दुर्ग टूटते ही कूणिक ने महाराजा चेटक ( अपने नाना ) को एक दूत द्वारा कहलाया - " पूज्य ! में आपका आदर करता हूँ । कहिये, आपके हित में क्या करूँ ?" चेटक ने उत्तर दिया- " राजन् ! तुम विजयोत्सव मनाने के लिये उत्सुक हो, परन्तु अच्छा हो कि नगरी में कुछ विनम्त्र से प्रवेश करो। "
कूणिक ने चेटक का उत्तर सुन कर सोचा
इस समय दान स्वरूप बहुत कुछ दे सकता था ।"
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"
'यह क्या माँगा चेटक ने ? मैं तो
सुज्येष्ठा का पुत्र सत्यकी था । उसने युद्ध का परिणाम और मातामह की
यहाँ स्तूप होने का कारण क्या था ? जन्मादि स्थल तो यह नहीं है ।
+ सुज्येष्ठा चेटक की ही पुत्री थी। वह श्रेणिक पर मुग्ध थी । परन्तु सुज्येष्ठा रह गई और चिल्लना चली गई, तत्र सुज्येष्ठा विरक्त हो गई । उसकी कथा संक्षेप में यह है कि वह दीक्षित होकर साध्वी हो गई ।
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