Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ ४१० तीर्थकर चरित्र-भा.३ से दर्शन पाने के लिए निकली । आज मेरा मनोरथ फला। अब कुछ दिन यहीं रह कर वा करने और सुपात्रदान का लाभ लेने की इच्छा है। आपकी कृपा से मेरी भावना सफल होगी । आप जैसे महान तपस्वी की सेवा छोड़ कर अब मैं अन्यत्र कहाँ जाऊँ ? आपके दर्शन और सेवा तो समस्त श्रमण-संघ का सेवा के समान है। कृपया मेरे यहाँ पारणा कर के मुझे कृतार्थ करें । मेरे पास निर्दोष मोदक हैं।" अत्यन्त भक्ति प्रदशित करती हुई वह सेवकों के निकट आई और एक सघन वृक्ष के नीचे पड़ाव लगाने की आज्ञा दो । तपस्वी मुनि भी उसकी भक्ति देख कर पिघल गये। उन्होंने उससे पारणे के लिये मोदक लिये और पारणा किया । खाने के पश्चात् तपस्वी मनि को अतिसार (दस्त) होने लगे। उस मायाविनी ने मोदक में वैसी औषधि मिला दी थी। अतिसार से मुनिजा अशक्त हो गए । उनका शक्ति क्षीण हो गई। उनसे उठना तो दूर रहा, हिलना भी कठिन हो गया। अब कपटी श्राविका पश्चाताप करती हुई बोली “तपस्वीराज ! मैं पापिनी हो गई। मेरे मोदक से आपको अतिसार हुआ और आपकी यह दशा हो गई । अब आपको इस दशा में छोड़ कर मैं कहीं नहीं जा सकती । मैं सेवा कर के आपको स्वस्थ बनाऊँगी, उसके बाद ही आगे जाने का विचार करूंगी।" तपस्वीजी को सेवा की आवश्यकता थी ही वे सम्मत हो गए । अब यवती वेश्या मुनिजी की सेवा करने लगी। वह उनका स्पश करने लगी। मुनिजी हिचकिचाये, तब वह बोली--"गुरुदेव ! आपकी दशा अभी मेरी सेवा चाहती है। अभी आप मना नहीं करें, स्वस्थ होने पर प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि कर लीजियेगा।" सुन्दरी उनके शरीर पर स्वयं तेल का मर्दन करने लगी और पथ्य बना कर देने लगी। कुलवालुकजी में शक्ति का संचार होने लगा। धीरे-धीरे शक्ति बढ़ने लगी । उन्हें उपासिका की सेवा, मधुर वाणी, सुरीले भजन और स्निग्ध स्पर्श रुचिकर लगने लगा। वे उस उपासिका का सतत सान्निध्य चाहने लगे। मागधिका से किये जाते हुए मर्दन से कुलवालुक का मोह उभड़ने लगा । दिन-रात का साथ रहना और मोहक शब्द-रूप गंधरस और स्पर्श के योग से तप-संयम की होली जल कर भस्म होती ही है। कूलवालक भी फिसला । उनमें पति-पत्नीवत् व्यवहार होने कगा। वह पूज्य मिट कर कामिनी का पूजक (किंकर) हो गया। माधिका उसे मोह-पाश में बाँध कर चम्पा नगरी ले आई और राजा को अपनी सफलता का सन्देश सुनाया। कूणिक ने कुलवालुक का आदर-सत्कार किया और कहा--" आप वैसा उपाय करें कि जिससे वैशाली का गढ़ टूट जाय।" राजा का आदेश स्वीकार कर के बुद्धिमान् कुलवालुक साधु के वेश में विशाला पहुँचा । वह दुर्ग के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498