Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 426
________________ कुलवालक के निमित्त से वैशानी का भंग ४०२ कककककककककककककयाrantirapकककककककककककककककककककककककककककककककककककर का आचरण और पबहार सीखा और माधु-साध्वियों के सम्पर्क में आने लगी तथा व्रतधारिणो धर्मप्रिय श्राविका के समान दिखावा करने लगी। एकबार उसने आचार्यश्री से पूछा;-- "भगवन ! कलवालक मनि दिखाई नहीं देते, वे कहाँ है ?" आचार्य महाराज उसके पूछने के कुत्पित कारण को क्या जाने। उन्होंने सहज ही कहा; “एक सुसंयमी उत्तम सत थे। उनके एक कुशिष्य था । वह गुरु की आज्ञा नहीं मान कर अवहेलना करता। गुरु उसे प्रेमपूर्वक सुशिक्षा देते, तो भी वह उनकी उपेक्षा करता । गुरु का वह आदर तो करता ही नहीं था। एक बार विहार में वे एक पर्वत से नीचे उतर रहे थे। गुरु आगे और शिष्य पोछ था। कुटिल शिष्य के मन में गुरु को मार डालने का र्विवार उठा । उसने ऊपर से एक बड़ा पत्थर गिराया, जो लुढ़कता हुआ गुरु की ओर आ रहा था। गुर ने पत्थर लड़कने की ध्वनि सुन कर उस ओर देखा और संभल कर दोनों पंव फैला दिये । पत्थर पाँवों के बीच में हो कर निकल गया। गुरु को शिष्य के इस कुकृत्य पर रोष आंयां और शाप देते हुए कहा-“कृतघ्न दुष्ट ! तू इतना घोर पापी है ? तुझ में साधुता तो क्या, सदाचारी गृहस्थ के योग्य गुण भी नहीं है । भ्रष्ट ! तुं पतित है और स्त्रो के संसर्ग से भ्रष्ट ही कर महापतित होगा।" "तुम झूठ हो। मैं तुम्हारे ईसे शाप को व्यर्थ सिद्ध कर के तुम्हें मिथ्यावादी ठहराऊँगा'"--कह कर वह एक ओर चलता बना और एक निर्जन अरण्य में--जहाँ स्त्री ही क्या, मनुष्य का भी निवास नहीं था-रहकर मास-अर्द्धमास आदि तपस्या करने लगा। उस ओर हो कर जो पथिक जाते, उनके आहार से पारना कर के तपस्या करता । उस स्थान के निकट ही एक नदी थी। वर्षाकाल में आई बाढ़ से नदी का पानी फैला और उस तास्त्री के स्थान तक आ गया था। नदी के तेंट के समीप होने के कारण उसका नाम "कुलवालक' प्रसिद्ध हो गया। अभी वे मनि उस प्रदेश में ही रहते हैं।" आचार्य से कुलवालक के स्थान की जानकारी प्राप्त कर के वह श्राविका बनी हुई वेश्या प्रसन्न हुई। घर आ कर उसने प्रयाण करने के लिये रथ सेवक और उपयोगी खाद्या दि सामग्री जुटाई और चल निकली। क्रमश: वह कुलवालुक मनि के स्थान पहुँच कर रुक गई । उमने भक्ति का प्रदर्शन करते हुए कहा-- "तपस्वीराज ! मेरा जीवन तो अब धर्मसाधना में ही व्यतीत होता है। तपस्वियों और साधु संतों के दांत वन्दन करना, प्रतिलाभना और धर्म की साधना करते हुए जीवन सफल करना ही मेरा लक्ष्य है। पथिकों से आप के उग्र तपस्वी होने की बात सुन कर घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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