Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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शरणागत का संरक्षण
कककककककककककककककककक कककककककककककककककककक
राज्याधिपति श्रेणिक ( उसके पिता) ने ही उन्हें दान में दे दिया। इसके अतिरिक्त उन्हें राज्य का कुछ भी भाग नहीं मिला, तब उचित प्रतिदान दिये बिना ही पिता द्वारा प्रदत्त वस्तु माँगना कैसे उचित हो सकता है ? इसीलिए मैंने न्याय मार्ग बताया कि इन दोनों वस्तुओं को प्राप्त करना है, तो विनिमय स्वरूप अपना आधाराज्य दे दो और दोनों वस्तुएँ ले लो । यही उत्तम मार्ग है ।"
दृत लौट गया । चेटक नरेश का उत्तर सुन कर कूणिक राजा क्रोधित हो उठा । उसने तीसरी बार दूत को आदेश दिया-
" तुम विशाला नगरी जा कर चेटक के पादपीठ को बायें पाँव से ठुकराओ और भाले की नोक पर लगा कर पत्र दो। साथ ही क्रोधित हो, ललाट पर त्रिवली एवं भृकुटी चढ़ा कर कहो ; -
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ककककककककककक
"रे मृत्यु के इच्छुक निर्लज्ज दुर्भागी चेटक ! तुझे महाराजाधिराज कूणिक आदेश
देते हैं कि - सेचनक हस्ति, हार और दोनों बन्धुओं को मुझे अर्पण कर दे, अन्यथा युद्ध के लिए तत्पर होजा । कूणिक नरेश विशाल सेना ले कर शीघ्र ही आ रहे हैं ।"
दूत चेटक नरेश के समीप आया, हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और कहा-स्वामिन् ! मेरा प्रणाम स्वीकारें । यह मुझ स्वयं का आपके प्रति विनय है । परन्तु अब आगे जो मैं अशिष्टतापूर्वक वर्तन करूँगा, वह मेरा नहीं मेरे स्वामी महाराजाधिराज कुणिकजों की ओर का होगा ।" इतना कह कर उसने अपने बायें पाँव से चेटक नरेश की पादपाठका ठुकराई और भाले की नोक पर रख कर कूणिक का पत्र उन्हें दिया और कोपूर्वक भृकुटी एवं त्रिवली चढ़ा कर बोला--" रे मृत्यु के इच्छुक.... आदि ।
"
दूत के अष्टि एवं अश्रुपूर्व कटु वचन सुन कर चेटक महाराज भी क्रोधित हो गये और रोवपूर्वक बोले;
"रे दून ! मैं कूणिक को न तो हार-हाथी ही दूंगा और न दोनों कुमारों को ही लौटाऊंगा। तू जा और कह दे कूणिक को वह अपनी इच्छा हो वह करे । मैं युद्ध के लिये तत्पर हूँ ।"
इस दून को अपमान पूर्वक पिछले द्वार से निकाल दिया । दूत ने चम्पा लौट कर कूणिक का अपनी यात्रा का परिणाम निवेदन किया। दूत की बात सुन कर कूणिक क्रोधित हुआ। अब युद्ध छेड़ना उसने आवश्यक मान लिया । उसने तत्काल ही अपने कालकुमार आदि दप बन्धुओं को बुलाया और वेहल्ल- वेहास के पलायन और चेटक नरेश से हुए संदेशों
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