Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र-भाग ३ sp4ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककर
का भार उठा सके ।' उपकी दृष्टि में एक मात्र कूणिक ही सभी दृष्टि से योग्य लगा। उसने निश्चय कर लिया कि कणिक को ही मगध-सा म्र ज्य का शासक बनाना । यह निश्चय कर के उपने महारानी चिल्लना के छोटे पुत्र (कणिक के सगे छ टे भाई) को अठारह लड़ियों वाला हर और 'सेचनक' नामक गजराज दे दिया। उनका विचार था कि अन्य पुत्रों को ज गोर दे दूंगा, फिर सारा साम्राज्य कणिक का ही रहेगा । परन्तु कणिक पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ा । उसने अपने 'काल' आदि दस बन्धुओं को एक गुप्त स्थान पर बुलाया और अपनो कुटिल योजना उपस्थित करते हुए बोला ;--
"ज्येष्ठ बन्धु अभयकुमारजी को धन्य है कि उन्होंने युवावस्था में ही राज्याधिकार और भोगोपभोग त्याग कर निग्रंथ बन गये। परन्तु पिताजी वृद्ध हो गये, फिर भी राज्य और भोग नहीं छोड़ते । होना तो यह चाहिये कि ज्यों ही पुत्र योग्य हो जाय, तब पिता को राज्य का भार पुत्र को दे कर संसार छोड़ देना चाहिये, किन्तु पिताजी की भोग-लालसा ने उनके विवेक को हर लिया है। अब अपन सब मिल कर पिताजी को बन्दी बना कर एक पिंजरे में बन्द कर दे और राज्य के ग्यारह विभाग कर के अपन बाँट लें।"
कूणिक की दुष्ट योजना सब ने स्वीकार कर ली और श्रेणिक को एकांत में अकेला पा कर बन्दी बना दिया तथा एक पिंजरे में बन्द कर दिया। कल तक जो मगध-साम्राज्य का स्वामी था. जिसका शासन लाखों-करोडों मनष्यों पर चलता था और जिसने जीवन भर उच्च प्रकार के भोग ही भोगे, जिसकी सेवा में अनेक दास-दासियाँ हाथ जोड़ खड़े रहते थे, वह मगध-सम्राट श्रेणिक आज एक आपराधिक बन्दी जैसा पिंजरे में बन्द हैशत्रु नहीं अपने प्रिय पुत्र द्वारा । भाग्य से उत्पन्न विडम्बना ही है यह । ग्रन्थकार लिखते हैं कि कणिक पिता को भोजन भी नहीं देता था और दुःखी करता था । वह किसी
ग्रन्थकार लिखते हैं कि कणिक बन्दी पिता को भोजन और पानी भी नहीं देता था और प्रात:काल और सायंकाल पिता को सौ-सौ चाबुक पीटता था। चिल्लना अपने मस्तक के बालों के जड़े में उड़द के बाकलों का पिण्ड छुपा कर ले जाती। भूख का मारा श्रेणिक उसे मिष्ठान जैसा समझ कर खा जाता। अपने मस्तक के बालों को मदिरा से धो कर झरते हुए बिन्दुओं को समेट कर लाती और उन मद्य-बिन्दुओं को पति के मंह में टपका कर उसकी तथा शान्त करती तथा नशे में चाबकों की मार से भुलाई जाती। इस कथानक पर सहसा विश्वास नहीं होता। इतनी नृशंसता किसी शत्रु के साथ भी नहीं की जाती, फिर पिता के साथ कैसे हुई और तब तक माता भी उसका भ्रम दूर नहीं कर सको, जो बहुत दिनों-महीनों बाद किया? वैसे श्रेणिक के पूर्वभव की उस घटना पर विचार करते हैं, तो साष्ट होता है कि श्रेणिक का जीव सुमंगल राजा के मन में तपस्वी के प्रति दुर्भाव नहीं था--जिससे इतना दुःखदायक
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