Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र-भाग ३
नवककनकवनवलपककालकायककककककककककककककककककककककककककककककककककककर
किसी उत्सव का दिन आया। दासी उदास हो कर बोली--"प्राणेश ! उत्सव पर सखियों के साथ जाने, गोष्ठी करने आदि के योग्य सामग्री मेरे पास नहीं है । मैं कैसे उनमें सम्मिलित हो सकूँगी ? दीनहीन हो कर जाने में मेरी निन्दा होगी। मैं तुच्छ एवं हीन दृष्टि से देखी जाऊँगी। कुछ उपाय कीजिये।"
--"प्रिये ! मैं क्या करूँ ? मैं स्वयं दरिद्र हूँ। सेठ की कृपा से पेट-भराई हो जाती है और पढ़ता हूँ । मेरे पास है ही क्या, जो मैं तुझे दूं?".
दासी ने कहा--"एक उपाय है। इस नगर में धनदत्त सेठ है । उसे जो कोई प्रातःकाल के पूर्व मधुर स्वर में कल्याण राग से मंगलाचरण गा कर जगावे, उसे वह दो माशा सोना देता है । यदि रात को ही उठ कर आप सेठ के यहाँ सर्वप्रथम पहुँच जावें, तो आपको स्वर्ण मिल सकता है।" .. --" यह कार्य में अवश्य करूँगा । तुम निश्चित रहो।"
कपिल स्वर्ण पाने के लिए आधी रात के बात ही चल निकला। मार्ग में उसे नगररक्षकों ने चोर समझ कर पकड़ा और प्रातःकाल उसे राजा के सम्मुख खड़ा किया। राजा ने कपिल से उसका परिचय और रात्रि में गमन का कारण पूछा। कपिल ने अपनी कहानी सुना दो । राजा को उसके चेहरे पर उभरे भावों से उसका कथन सत्य लगा। उसकी दयनीय दशा देख कर राजा ने कहा ;--"तेरी इच्छा हो, वह मुझ-से माँग ले । मैं तुझे दूंगा।"
___ कपिल प्रसन्न हो गया और बोला--" कृपानाथ ! मैं अपनी आवश्यकता का विचार कर लूं, फिर माँग करूँगा।"
राजा की आज्ञा पा कर कपिल अशोकवाटिका में गया और सोचने लगा; -
" यदि दो माशा स्वर्ण ही माँगूगा, तो उससे क्या मिलेगा ? प्रिया के वस्त्र भी पूरे नहीं पड़ेंगे और अभाव खटकता रहेगा। इसलिए सौ स्वर्ण-मुद्रा माँग लू ।' लोभ बढ़ने लगा--" सौ दिनारों से भी सभी आवश्यकताएँ कैसे पूर्ण होगी? उत्तम वस्त्रों के साय मूल्यवान् आभूषण भी चाहिए और दासत्व से मुक्त होकर सुखपूर्वक रहने के लिये अच्छा घर, उत्तम भोजन आदि सुखपूर्वक मिलते रहने के लिए तो सहस्र मुद्राएँ भी न्यून ही होगी । बाल-बच्चे होंगे। उन्हें पालना, पढ़ाना, विवाहादि करना, इत्यादि के लिए तो लाख मोने ये भी कम होंग ।" करोड़ दिनार.......बढ़ते-बढ़ते हठात् विचार पलटे। इस निमित्त से उसकी भवितव्यता जगी। उसके महान् पुण्य का उदय और चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम तीव्र हुआ। उसने सोचा; --
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