Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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राजमार्ग पर वे रहने लगे थे । अभयकुमार के साथ वाली दोनों सुन्दरियाँ सजधज के साथ प्रद्योत की दृष्टि में आई । प्रद्योत देखते ही मुग्ध हो गया और टकटकी पुर्वक देखता ही रहा । सुन्दरियों ने स्मितपूर्वक कटाक्ष किया । राजा ने अपनी दूती उनके पास भेजी, तो उन्होंने उसे तिरस्कार पूर्वक लौटा दी । कूटनी चतुर थी। समझ गई कि इनका मन तो राजा की ओर है, परन्तु लज्जावश अस्वीकार करती है। उसने राजा को आश्वासन दिया और कहा कि 'दो-तीन दिन प्रयत्न करने पर मान जाएगी।' कूटनी दो तीन दिन जाती रही। उसका प्रयत्न सफल हुआ। सुन्दरी ने कहा--'' हम अपने भाई के साथ आई हैं । उस के रहते राजा के यहाँ नहीं आ सकती। यह आज से सातवें दिन दूसरे गाँव जायगा, तब राजा यहाँ आ सकते हैं।"
इधर प्रतिदिन उस विक्षिप्त बने हुए छद्मवेशी को ले कर अभयकुमार वैद्य के यहाँ जाता-आता और वह चिल्लाता रहता--" अरे लोगों ! मुझ छुड़ाओ। मैं यहाँ का राजा हूँ।" लोग यही समझते कि यह पागल का बकवाद है, परन्तु आश्चर्य है कि इसका रूप और आकृति राजा से पूर्णरूप से मिलती है। कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता और सब सुन कर भी अनसुना कर देते । सातवें दिन राजा वहाँ आया। अभय के छपे सैनिकों ने उसे पकड कर खाट पर बांधा और उठा कर ले जाने लगे। राजा तड़पा और चिल्लाया, परन्तु किसी ने उस ओर ध्यान नहीं दिया । अभय सकुशल राजा को नगर से निकाल कर वन में लाया और पहले से ही खड़े रथ में डाल कर ले उड़ा । मार्ग में यथास्थान रथ बड़े रखे थे। रथ पलटते हुए राजगह ले आये ।।
श्रेणिक ने शत्रु को देखते ही क्रोधपूर्वक खड्ग उठा कर मारने को तत्पर हुआ। परन्तु अभय कुमार ने उन्हें रोका। तत्पश्चात् चण्डप्रद्योत को सत्कार-सम्मान पूर्वक उज्जयिनो पहुँचाया।
संयम सहज और सस्ता नहीं है गणधर भगवान् श्री सुधर्मास्वामीजी के उपदेश से राजगृह का एक लक्कडहाग विरक्त हो गया और दीक्षा ले कर संयमी बन गया। तत्पश्चात् वह भिक्षाचरी के लिये नगर में निकला । उसकी पूर्व की दरिद्रावस्था को जानने वाले लोग उसकी निन्दा करते हुए कहने लगे; -"ये देखो, महात्मा आए हैं। चलो अच्छा हुआ। रोज वन में दूर दूर तक जाना, लकड़ो काट कर, भार उठा कर लाना, बंच कर अन्न लाना और संध्या तक
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