Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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राज्य-लोभ राजर्षि की घात करवाता है
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हुआ। उदयन नरेश के मस्तक के केश महारानी प्रभावती ने ग्रहण किये । महारानी ने इस प्रकार हुदयोद्गार व्यक्त किये-“हे स्वामी ! आप अप्रमत रह कर संयम पालन करने में हो प्रयत्नशील रहें और कायों पर विजय प्राप्त कर के मुक्ति प्राप्त करें।"
अभीचिकुमार का वैरानुबन्ध
पिता द्वारा राज्य-वैभव से वंचित किये जाने पर अभी चिकुमार को खेद हुआ। वा राज्य वैभव भोगना चाहता था। निराश अभीचिकुमार अपने अन्त.पुर सहित वीतभय नगर छोड़ कर अपनी मौसी के पुत्र कणिक नरेश के राज्य में-चम्पा नगरी-आया और राज्याश्रय में रहा । कणिक नरेश ने उसको आदर दिया और सभी प्रकार की सुख-सुविधा प्रदान की। कालान्तर में अभीविकुमार जीव-अजीव का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। फिर भो वह अपने पिता राजषि उदयनजी के प्रति वैरभाव से मुक्त नहीं हो सका। उसने बहुत वर्षों तक श्री गोपासक पर्याय का पालन किया, और अर्थ मासिक * सलेखना कर केउस वैर भाव को आलोचना किये बिना ही-काल कर के एक पल्योपम की स्थिति वाला अगर कुमार देव हुआ । वहाँ की आयु पूर्ण कर के वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और चारित्र का पालन कर के मोक्ष प्राप्त करेगा।
गज्य लोभ राजर्षि की घात करवाता है गजर्षि उदयन जी भगवान् के शासन के अंतिम राजर्षि हुए । दीक्षित होने के बाद वे उग्र तप करने लगे । अपथ्य आहार से उग्र वेदना उत्पन्न हुई । वैद्यों ने कहा-'आप दही लेवें । इस मे रोग का शमन होगा।' राषि विहार करते हुए गोबहुल स्थान में आयेजहाँ निर्दोष दही की प्राप्नि सुलभ थी। वह स्थान वीतभय राज्य के अन्तर्गत एवं निकट था। राजर्षि को राजधानी की ओर आते जान कर मन्त्रियों ने केशी नरेश से कहा"महाराज ! महात्मा उदयनजी इधर आ रहे हैं।"
-“यह तो आनन्द दायक समाचार है । अपने अहो भाग्य है कि महाभाग यहाँ पधार रहे हैं "-केशी नरेश ने प्रसन्न होते हुए कहा ।
* पूज्य श्रीहस्तीमलजी म. सा. ने जैनधर्म का मौलिक इतिहास प. ५३१ पर एक मास की संले बना' लिवा। यह भगवती सूत्र से विपरीत है ।
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