Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र - - भाग ३
कककककककककककककककककककक
रोहिण साधु हो गया
महामात्य का प्रयत्न निष्फल गया। रोहिण को मुक्त करना पड़ा ।
मुक्त होने के पश्चात् रोहिण ने सोचा ;
" मेरे पिता की आत्मा ही पापपूर्ण थी, जो उन्होंने मुझे श्रमण भगवान् महावीर प्रभु को परम आनन्ददायिनी वाणी से वंचित रखा। जिनकी वाणी के कुछ शब्द अनचाहे भी कानों में आ कर हृदय में उतरे और उनके प्रताप से मैं कारावास एवं मृत्युदण्ड से बच गया । हा ! मैं दुर्भागो अब तक भगवान् की परम पावनी अमृतमय वाणी से वंचित रहा। अब भी भगवान् का शरण ले कर अपना जीवन सुधार लूं, तो परम सुखी हो जाऊँ ।'
"
वह भगवान् के समीप गया । वन्दना नमस्कार किया और भगवान् का धर्मोपदेश सुना । भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर और अन्य मनुष्यों को दीक्षित होते देख कर, रोहिण भगवान् से पूछा--" प्रभो ! क्या मैं भी साधु होने योग्य हूँ । आप मुझे अपना शिष्य बनाएँगे ?”
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"हां, रोहिण ! तुम साधु होने योग्य हो । तुम्हें प्रव्रज्या प्राप्त होगी ।"
रोहिण ने सभा में उपस्थित महाराजा श्रेणिक के निकट जा कर कहा--" महाराज ! मैं स्वयं रोहिणिया चोर हूँ । आपके नगर में मैंने बहुत-सी चोरियाँ की, किन्तु पकड़ा नहीं जा सका । अंतिम बार पकड़ा गया। में इस बार मृत्युदण्ड से बच नहीं सकता था | आपके महामन्त्री की पकड़ में से निकलना सम्भव नहीं था । परन्तु भगवान् के कुछ वचन मेरे कानों में-- अनचाहे ही -- पड़ गये। उन वचनों ने ही मुझे मृत्यु दण्ड से बचाया । अब मैं इस चौर्यकर्म का ही नहीं, साँसारिक सभी सम्बन्धों का त्याग कर भगवान् की शरण में जा रहा हूँ । आप अपने विश्वस्त सेवकों को मेरे साथ भेजिये। मैं सभी चोरियों का धन उन्हें दे दूंगा।"
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अब रोहिण को पकड़ने की आवश्यकता ही नहीं थी । राजा ने उसके निश्चय की सराहना की और रोहिण के साथ अपने सेवकों को भेजे । उसने पहाड़ों, गुफाओं, भेखड़ों और जहाँ-जहाँ धन गाड़ा था, वह सभी निकाल कर दे दिया । वह धन राजा ने जिसका उसे दे दिया । रोहिण अपने कुटुम्बियों के पास आया । उन्हें समझाया और अनुमति प्राप्त कर भगवान् के समीप आया । श्रेणिक नरेश ने उसे दीक्षित होने में सहयोग दिया। रोहिण मुनि दाक्षित होते ही तप-संयम की आराधना करने लगे । यथाकाल आयु पूर्ण कर देव भव प्राप्त किया ।
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