Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पत्नियों का व्यंग और धन्य की दीक्षा
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'माता ! जब संयम साधना का दृढ़ निश्चय कर लिया तो फिर दुःखों और परीषहों को तो आमन्त्रण ही दिया है । जो कायर होते हैं, वे ही दुःख से डरते हैं । मैं सभी परं षहों को सहन करूंगा । आप अनुमति प्रदान कर दें ।"
“पुत्र ! यदि तू सर्वत्यागो बनना चाहता है, तो पहले देश त्यागी बन कर क्रमश: त्याग बढा, जिससे तुझे त्याग का अभ्यास हो जाय। इसके बाद सर्वत्यागी बनना । " शालिभद्र ने माता का वचन मान्य किया और उसी दिन से एक पत्नी और एक शय्या का त्याग -- प्रतिदिन करने लगा ।
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पत्नियों का व्यंग और धन्य की दीक्षा
उसी नगर में 'धन्य' नाम का धनाढ्य श्रेष्ठि रहता था । वह शालिभद्र की कनिष्ट भगिनी का पति था। भाई के संसार-त्याग की बात सुन कर बहिन के हृदय में बन्धु विरह का दुःख भरा हुआ था । धन्य श्रेष्ठि स्नान करने बैठा । उसकी पत्नियें तेलमर्दन उबटनादि कर रही थी और सुभद्रा सुगन्धित शीतल जल से स्नान करवा रही थी । उस समय उसके नेत्र से आँसू की धारा बह निकली। धन्य ने पत्नी की आँखों में आँसू देख कर पूछा --
"प्रिये ! इस चन्द्र वदन पर शोक की छाया और आँसू की धारा का क्या कारण
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है ?”
" नाथ ! मेरा बन्धु गृहत्याग कर साधु होना चाहता है। इसलिए वह एक-एक पत्नी और एक-एक शय्या का प्रतिदिन त्याग करने लगा है। भाई के विरह की संभावना से मेरा हृदय शोक पूर्ण हो रहा है--स्वामिन् " -- सुभद्रा ने हृदयगत वेदना व्यक्त की । 'ऐं क्या एक पत्नी प्रतिदिन त्यागता है ? तब तो वह कायर है. गीदड़ है । यदि त्याग ही करना है, तो सिंह के समान एक साथ सब कुछ त्याग देना चाहिये । क्रमशः त्यागना तो सत्त्व होता है "-- धन्य ने व्यंगपूर्वक कहा । पति का व्यंग सुन कर अन्य पत्नियाँ बोली--- यदि त्यागी बनना सरल है, तो आप ही एक-साथ सर्वस्व त्याग कर निर्ग्रा दोक्षा क्यों नहीं लेते ? बातें करना जितना सहज है, कर दिख न उतना सरल नहीं है ।" धन्य ने तत्काल उठ बन्ध बनी हुई थी । तुम्हारी
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कर कहा - " बस, मैं यही चाहता था। तुम सब मेरे लिये अनुमति मुझे सहज ही प्राप्त हो गई । अभी से मैने तुम
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